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सोने की नाव चांदी की पतवार और इंद्रावती पार

जमींदारीन जलनी माता का छत्र लेकर सैकड़ों ग्रामीण इंद्रावती किनारे नावघाट में एकत्र हुए। इतना ही नहीं इस सोने के बने नाव को खेने के लिए जिस पतवार की जरूरत होती है। उस पतवार को ठोस चांदी से बनाया गया है।

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सोने की नाव को नदी में तैरा दिया

अजय श्रीवास्तव। जगदलपुर। सोने की लंका की बात पौराणिक कथाओं में सुनते ही आए हैं। इस सोने की लंका में भवन, उपकरण, साज सामान सभी सोने के हुआ करते थे। इसके अलावा भारत देश को भी सोने की चिड़िया कहा जाता रहा था। हमारे देश में स्वर्ण मुद्रा का भी चलन सदियों तक रहा है। इसके जीवंत प्रमाण संग्रहालय में आसानी से देखे जा सकते हैं।

स्वर्ण जड़ित प्रतिमाओं, आभूषणों की दीवानगी
भारत देश के अलावा विश्व भर में सनातनी परंपरा वाले देवालयों, मंदिरों में स्वर्ण जड़ित प्रतिमाओं का पाया जाना साधारण बात है। भारतीय संस्कृति में स्वर्ण आभूषणों को लेकर दीवानगी देखी जा सकती है । लाखों टन सोना महिलाओं के गहने बनने खप जाते हैं।
सोने की नाव को नदी में तैरा दिया
इन सभी उदाहरण में सोने की नाव का कहीं भी जिक्र नहीं मिलता है। पर बस्तर में यह परंपरा आज भी कायम है। यहां अगस्त महीने के आखिर में एक धार्मिक सामाजिक में ऐसा किया गया है। इस आयोजन में सोने की नाव को इंद्रावती नदी में तैरा दिया गया। इतना ही नहीं इस सोने के बने नाव को चलने के लिए जिस पतवार की जरूरत होती है। उस पतवार को ठोस चांदी से बनाया गया था।
यह परंपरा निभाई गई
जमींदारीन जलनी माता का छत्र लेकर सैकड़ों ग्रामीण इंद्रावती किनारे नावघाट में एकत्र हुए। ग्राम पुजारी द्वारा जलनी माता के छत्र की सेवा अर्जी करने के बाद इंद्रावती नदी को सोने का नाव चांदी का पतवार, और कई पूजन सामग्री भेंट देकर नवाखानी त्यौहार मनाने की अनुमति मांगी गई। भेंट देकर यह माना कि घाट कवाली में नवाखानी तिहार मनाने की अनुमति मिल गई है। घाटजात्रा मेंग्राम प्रमुखों के अलावा करंजी, भाटपाल, चोकर, कुड़कानार के ग्रामीण भी शामिल रहे। पूर्व सरपंच सुकरु राम कश्यप ने बताया कि यह परंपरा लगभग सात सौ वर्षों से चली आ रही है।