
हरीश पाराशर
Rajasthan Assembly Election 2023 : किसी भी राजनीति दल के लिए बड़ा बदलाव एक बड़ा सपना पूरा करने का मकसद लिए होता है। भारतीय जनता पार्टी ने राजस्थान में प्रदेश अध्यक्ष, नेता प्रतिपक्ष और उपनेता प्रतिपक्ष के रूप में जिन चेहरों को आगे किया है, वह भी इसी मकसद का हिस्सा है। पार्टी के 44वें स्थापना दिवस पर कार्यकर्ताओं को संबोधन में जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि बड़े सपने को साकार करना भाजपा का लक्ष्य है तब भी समझ में आ जाता है कि यह बड़ा सपना क्या है? जाहिर है पार्टी को इसी साल जिन राज्यों में चुनाव हो रहे हैं वहां से लेकर अगले साल केन्द्र में फिर से सत्तासीन होना है।
राजस्थान में नए चेहरे के रूप में सांसद सीपी जोशी को प्रदेश अध्यक्ष बनाने से लेकर नेता प्रतिपक्ष के पद पर राजेन्द्र राठौड़ व पार्टी प्रदेश अध्यक्ष के मुकाबले कमतर समझे जा रहे उपनेता प्रतिपक्ष के रूप में सतीश पूनिया की नियुक्ति को पार्टी की सोशल इंजीनियरिंग का हिस्सा बताया जा रहा है। ऐसी सोशल इंजीनियरिंग जिसमें ब्राह्मण, राजपूत के साथ कांग्रेस के बड़े जाट वोट बैंक को साधने का प्रयास किया गया है। जातिगत राजनीति की बुराई करने में यों तो सभी दल आगे रहते हैं, लेकिन सबसे पहले गले भी इसी बुराई को लगाते हैं। टिकट वितरण से लेकर सत्ता में आने पर मंत्रिमंडल के गठन तक में।
इन नियुक्तियों से इतना तो लगने ही लगा है कि तीनों नेताओं की विधानसभा चुनावों में अहम भूमिका रहने वाली है। लेकिन सबकी निगाह इस पर भी है कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे इस मुहिम में कहां रहेंगी? न तो यह लगता कि वसुंधरा समर्थक अपने नेता की उपेक्षा को पचा पाएंगे और न ही यह लगता कि खुद वसुंधरा राजे अपनी उपेक्षा बर्दाश्त कर लेंगी। इसीलिए केन्द्रीय स्तर के नेता भी वसुंधरा राजे को उचित सम्मान देने की बात कहते आए हैं। हां, पार्टी के लिए यह संतोष का विषय हो सकता है कि नए अध्यक्ष की ताजपोशी के बाद वसुंधरा खेमे के नेता भी एक जाजम पर बैठने लगे हैं। हालांकि भाजपा की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष के रूप में वसुंधरा राजे की प्रदेश में सक्रियता कैसी रहेगी या और नई भूमिका मिलेगी यह देखना है।
बात जब बदलाव की हो रही है तो बड़ा सवाल यह भी है सत्ता में वापसी के लिए भाजपा की रणनीति क्या रहने वाली है? क्या सवर्णों के सहारे ही वह चुनाव मैदान में उतरेगी? क्या पूनिया को मिले पद से जाट खुश हो पाएंगे? वह भी ऐसे वक्त में जब गुर्जर-मीणा जैसा बड़ा वोट बैंक भी सचिन पायलट और डॉ. किरोड़ी लाल मीणा के साथ बंटा नजर आता है।
किरोड़ी लाल मीणा पिछले प्रदेश नेतृत्व पर असहयोग का आरोप लगाते रहे हैं। वसुंधरा राजे व किरोड़ी लाल मीणा की संभावित खामोशी के भी कई नए खतरे हैं। कहा तो यह जा रहा है कि राजस्थान में भाजपा मुख्यमंत्री का चेहरा सामने नहीं लाएगी बल्कि पीएम मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ेगी। सच तो यह है कि ऐसा ही होता तो विधानसभा के पांच साल पहले के चुनाव नतीजे भी भाजपा के पक्ष में ही होते। वैसे भी लोकसभा व राज्य विधानसभा के चुनाव नतीजों को एक ही तराजू से तोलना संभव भी नहीं है।
राजस्थान में पिछले पांच साल में प्रतिपक्ष के रूप में पार्टी की जो भूमिका रही उसे देखकर तो लगता नहीं कि भाजपा को ‘चुनावी अश्वमेध’ के घोड़े छोड़ने में अड़चनें नहीं आएंगी। वह भी तब, जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने संसाधनों के जुगाड़ का खुलासा किए बिना ही 19 नए जिले खोलने, राज्य कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन स्कीम (ओपीएस) लागू करने, मुफ्त बिजली, पांच सौ रुपए में रसोई गैस सिलेण्डर जैसे ‘चुनावी ब्रह्मास्त्र’ पहले ही छोड़ रखे हैं।
भाजपा को यह उम्मीद जरूर कर रही होगी कि हर पांच साल में सत्ता बदलने की परिपाटी इस बार उसे सत्ता का स्वाद चखाएगी। उम्मीदों पर वैसे तो आसमान टिका होता है लेकिन बड़ी जरूरत जनता की उम्मीदों पर खरे उतरने की होती है। जनता का पक्ष सुनें तो यही ध्वनि निकलती है कि चार साल में कांग्रेस व भाजपा दोनों ही अंदरुनी कलह में ज्यादा व्यस्त रहे हैं।
जनधारणा यह है कि भाजपा तो जवाबदेही कानून लागू कराने, पेपर लीक प्रकरण, बढ़ते अपराध व भ्रष्टाचार जैसे बड़े मुद्दों को भी जनता के बीच प्रभावी तौर पर ले जाने में विफल ही रही। राइट टू हैल्थ कानून को लेकर भी पार्टी का रवैया ढुलमुल ही रहा। ऐसे में भाजपा की यह उम्मीद थाली में सत्ता मिलने का हवाई किला बनाने जैसी होगी। कांग्रेस भी ऐसे ही हवाई किले बनाने में जुटी है। सत्ता बनाए रखने और सत्ता छीनने के दोनों ही काम ऐसे हैं जिनमें मेहनत काफी लगने वाली है। जनता सिर्फ यह देख रही है कि ज्यादा मेहनत कौन कर रहा है?
Published on:
07 Apr 2023 05:30 pm
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