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रील की दुनिया से रियल की ओर: नई पीढ़ी को संवेदनशील बनाने की जरूरत

डॉ रजनी सिंह राजावत

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जेनरेशन जेड और अल्फा की ऑनलाइन जिंदगी और वास्तविक रिश्तों से दूरी

इंसान कई गुण जैसे संवेदनशीलता,सहनशीलता,सहानुभूति,अनुभूति,दया और करुणा जैसी भावनाओं के साथ बना हुआ हाड़ मांस का एक मूर्त है। इन ही गुणों के कारण उसे इंसान का दर्ज़ा दिया गया जो कि दूसरों के सुख दुख की अनुभूति कर सहानुभूति दर्शा सके और दया, करुणा से दूसरे इंसानों और धरती पर उपस्थित सभी जीवों के प्रति अपनी संवेदनशीलता का परिचय दे सके।

लेकिन इक्कीसवीं सदी में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंसी और नित नए आविष्कारों के दौर में लगने लगा है कि हम इंसान कम और पाषाण ज्यादा बन गए हैं। जहां जेन जी और जेनरेशन अल्फा जैसे शब्द आ गए और उनका अर्थ जानने के लिए पुरानी पीढ़ी को गूगल का सहारा लेना पड़ रहा है।

अल्फा या जेन जी जेनरेशन अपना समय परिवार, रिश्तेदारों से ज्यादा अपने हमउम्र दोस्तों या ऑनलाइन होने में ज्यादा सुकून महसूस करता है। जहां वह घंटों मोबाइल पर रील देखने, कंप्यूटर पर मार धाड़ वाले गेम खेलने, न्यूनतम कपड़ों में वीडियो बनाने और कैसे भी जल्द से जल्द लोकप्रियता पाने को ही जिंदगी का उद्देश्य समझ बैठें हैं। बीती कुछ घटनाओं में देखे तो इस जनरेशन को पूरी तरह से संवेदनहीन होते हुए भी देखा जा रहा है।

अब ये हाथ किसी की मदद के लिए नहीं किसी घटना या दुर्घटना के वीडियो बनाने के लिए बढ़ रहे हैं और साथ ही इन वीडियो को जल्द से जल्द वायरल करने में, सार्वजनिक स्थलो पर उलूल जलूल हरकतें करते हुए, जल्दी पैसे कमाने, फॉलोवर्स की संख्या बढ़ाने और लोकप्रिय होने की मानसिकता इन्हें कहीं भविष्य के गर्त में ना ले जाए।

लिव इन रिलेशनशिप, एक्स्ट्रा मैरिटल अफेयर्स, देर रात तक घर से बाहर रहना, अलग अलग तरह का नशा, आमदनी से ज्यादा बैंक की बढ़ती किश्तें जिंदगी में सुकून कम और तनाव ज्यादा दे रही हैं। हम सब आभासी दुनिया में जीना ज्यादा पसंद करने लगे हैं सभी को अपना एक स्पेस चाहिए जहां वह बस खुद अपनी आभासी दुनिया के साथ हो । जहां वह किसी भी छद्म नाम से किसी को भी ट्रोल कर सके, भद्दी गालियां लिख सके, चैट बॉक्स में गंदे कमेंट डाल सके और यह सब जब तक कि जाने अनजाने में ये किसी अपराध के भागीदार ना बन जाएं।

क्या हम ऐसा भविष्य चाहते हैं जहां हमारी नई पीढ़ी की भावनाएं,संवेदनाएं शून्य हो चुकी हो। हाथ उठते हैं तो केवल स्क्रीन चलाने या वीडियो बनाने के लिए अन्यथा वो बंध चुके हो, और आंखे बंद वो केवल स्क्रीन की दुनिया को ही सच मान बैठी है।

जहां ऑस्ट्रेलिया जैसे देश ने 16 वर्ष से कम उम्र वाले बच्चों के लिए सोशल मीडिया प्लेटफार्म बंद करने का कानून ला चुकी है, जिससे कि बच्चे अनर्गल कंटेंट से दूर रह सके व उनका मानसिक स्वास्थ्य भी बेहतर रहे। वह देश के एक जिम्मेदार और समझदार नागरिक बन सके।

हमारे यहां कब ? हम सब यह उम्मीद लगाए हैं,तब तक हम सब की यह नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि हमारे युवाओं के भविष्य को इस निरर्थक और नकारात्मक ऑनलाइन कंटेंट से बचाए और जितना हो सके उन्हें वास्तविक दुनिया से जोड़े। उनके मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत विकास की जिम्मेदारी हमारी है ना कि किसी भी तरह के सोशल मीडिया प्लेटफार्म की। जरूरत है इन्हें रील बनाने से ज्यादा रियल बनाने की।