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जयपुर. खबरें किसी भी माध्यम से आए, आज भी उनमें डूबे बिना लोगों की शाम नहीं होती, ये और बात हैं कि पहले जितना ऐतबार खबरों पर हुआ करता था, वो नहीं रहा, इसकी एक वजह यह भी है कि खबरें लगातार आती रहती हैं, किसे याद करें, किसे भूल जाएं, ये तय करना मुश्किल हो गया है। फिर भी खबरें तो जाननी होती हंै, पर न जाने कितने फिल्टर से छनकर आती हैं ये।
अखबार है, तो उसमें स्पेस की गुंजाइश देखनी होती है। टीवी है तो तय वक्त, ऐसे में कई बार खबर आप तक पहुंचती तो हैं, लेकिन उसमें छिपी मानवीय संवदेनाएं उजागर होने से रह जाती हैं। संवदेनशील पत्रकार उन घटनाओं को भूल नहीं पाते। बताना चाहते हैं खबर के पीछे की खबर। बताना तो यह भी चाहते हैं कि कितनी तेजी से खबरों की दुनिया बदल गई है।
न जाने कितनी ही खबरें हैं, जो लिखी नहीं गईं, न जाने कितनी ही तस्वीरें ऐसी हैं, जो कैमरे में ही घुट कर रह गईं। न जाने कैमरे में एक किस्से को गढऩे वाले कितने फ्रेम सुप्त पड़े हैं, जो रूबरू हो जाना चाहते हैं, पर ये तब ही तो सामने आ पाते हैं, जब कलम और कैमरे के साथ ही उसे थामने वाला पत्रकार भी बेचैन हो।
पुष्पेन्द्र वैद्य ऐसे ही पत्रकार हैं, जिन्होंने कैमरे में रह गए फ्रेम को सामने लाना चाहा और एक किताब ‘द ट्रुथ बिहाइंड ऑन एयर’ के जरिए सामने लेकर आए। इस किताब में उन्होंने टीवी न्यूज़ के रुपहले पर्दे के पीछे की दुनिया के बारे में बताया है।
बता दें कि वे करीब दो दशक पहले टीवी पत्रकारिता में आए थे, उन दिनों टीवी पत्रकार होना बड़ी बात हुआ करता था। इन दो दशकों में मीडिया में तेजी से बदलाव हुआ है। इन बदलावों पर बात भी उन्होंने अपनी किताब के जरिए की है, जिन्हें जानना काफी दिलचस्प है।
जो युवा पत्रकारिता में अपना भविष्य तलाश रहे हैं, उनके लिए यह किताब बहुत उपयोगी है, उनके लिए भी, जो खबर के पीछे की खबर जानना चाहते हैं। कलमकार मंच से हाल ही प्रकाशित हुई यह किताब कहानी के रस को भी अपने में समेटे हुए हैं।
आज World Tribal Day है
पुष्पेंद्र ने बतौर टीवी पत्रकार कई बड़ी खबरों को कवर किया है, चूंकि 9 अगस्त को आदिवासी दिवस है, ऐसे में आदिवासियों को लेकर इस किताब में एक अध्याय है, ‘गोफन और फायरिंग के बीच आधी रात का सफर’ उसकी बात करते हैं।
यह 2 अप्रेल 2002 की घटना है, जब लेखक मध्यप्रदेश के देवास जिले में बतौर ब्यूरो प्रमुख काम कर रहे थे। तब एक खबर आई कि उदयनगर से अगो मेहंदीखेड़ा में पुलिस फायरिंग में चार आदिवासियों की मौत हो गई है। कई आदिवासी घायल हुए हैं।
निडर होकर उन्होंने खबर को पेश किया, जो बताना रह गया, उसे कुछ इस अंदाज में पेश किया उन्होंने-
‘गोफन और फायरिंग के बीच आधी रात का सफर’ एक अंश:
...आदिवासी अपने फलिये छोडक़र पहाडिय़ों पर तीर और गोफन लिये बैठे थे। दूर से कैमरा उन्हें समझ नहीं आ रहा था। उन्हें लगा कि हम भी पुलिस के लोग हैं। जैसे ही हम उनकी तरफ मुड़े तो उन्होंने तीर और गोफन का निशाना हमारी तरफ कर दिया। इसी बीच हमारे स्थानीय सहयोगी यशपाल सिंह आर्य ने उनकी बोली में आदिवासियों से गोफन नहीं चलाने की गुज़ारिश की। उन्होंने समझाया कि ये टीवी वाले लोग है और उनके मुद्दे की बात ऊपर तक पहुँचाने आये है। संयोग से एक आदिवासी नेता पत्रकार के नाते यशपाल सिंह को जानते थे।
हमने आदिवासियों का दर्द कैमरे में कैद किया। आदिवासियों ने अपने इंटरव्यू में रोते हुए कहा कि पुलिस ने हमारे चार निहत्थे आदिवासियों को गोली से भून डाला। जंगल सरकार कटवाती है, माफिया काटते हैं और सरकार हमें नक्सली बता कर निशाना बना रही है। पुलिस के लोगों ने उनके झोपडों को तबाह कर दिया। उनका सामान लूट ले गये। हमारी औरतों को पीटा जा रहा है। पुलिस और सरकार यहां आतंक फैला रही है।
मेहंदीखेड़ा कांड की पूरी ग्राउंड रिपोर्ट कैमरे में कैद हो चुकी थी।
Published on:
09 Aug 2019 05:23 pm
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