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इस कलाकार ने पिता से किया था ‘तमाशा’ को हमेशा जिंदा रखने का वादा

गुलाबीनगरी के वरिष्ठ रंगकर्मी दिलीप भट्ट अपने नाटकों और प्रस्तुति के जरिए जयपुराइट्स को करवाते हैं तमाशा शैली से वाकिफ

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जयपुर

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Aryan Sharma

Jul 16, 2018

Jaipur

इस कलाकार ने पिता से किया था 'तमाशा' को हमेशा जिंदा रखने का वादा

जयपुर . वरिष्ठ रंगकर्मी और तमाशा साधक दिलीप भट्ट का जयपुर की तमाशा शैली से गहरा जुडाव है। वह बचपन से लेकर आज तक तमाशा को जी रहे हैं। दिलीप का कहना है, 'छह साल की उम्र में जब मैं पिताजी को गाते देखता तो अंदर तक यह उत्साह भर देता। 'तमाशा' की लालसा ने मुझे इसी उम्र में आमेर में परफॉर्मेंस के लिए जाने पर विवश कर दिया। यहां मैंने बहन का किरदार निभाया था। परफॉर्मेंस के दौरान जैसे ही वहां मैंने राजा भृर्तहरि का प्रसंग 'भाई क्यों तज दिया राज...' सुनाया तो श्रोताओं ने पिताजी से कहा, 'वाह भट्टजी महाराज। खूब फट्टो तैयार कीजो...।' उस दिन पिताजी के चेहरे पर अलग ही मुस्कान थी। बस, उसी दिन मैंने तय कर लिया था कि मुझे जीवन में तमाशा ही करना है। मेरा परिवार सौ साल से इस शैली से जुड़ा है। यह एक संगीत प्रधान शैली है। जिसमें योग, उपदेश, रस, त्याग की भावनाएं हैं।'

'अग्निपरीक्षा' ने लगाया शतक
बकौल भट्ट, कभी तमाशा आमेर तक ही सीमित था, इसलिए मैंने सोचा कि यदि इस शैली को आगे बढ़ाना है तो इसमें थिएटर को जोडऩा होगा। इसके लिए मैंने रंगकर्मी साबिर खान जी से प्रोसेनियम थिएटर की शिक्षा ली। इसके बाद लगातार लोकनाट्य तमाशा पर आधारित नाटक 'अग्निपरीक्षा' मंच पर प्रस्तुत करता आ रहा हूं। इसकी खासियत लाइव म्यूजिक है। इसके पिछले साल 100 शो पूरे किए हैं।

हमेशा तेरे साथ रहूंगा
भट्ट बताते हैं, 'बात 2011 की है। मैं रवीन्द्र मंच पर नाटक कर रहा था। मुझे सूचना मिली की पिताजी की तबीयत ठीक नहीं है। मैं तुरंत घर पहुंचा तो पिताजी ने मेरा हाथ अपने हाथ में लेकर कहा, 'बेटा तू तमाशा को कभी मरने मत देना। मैं हमेशा तेरे साथ रहूंगा।' बस, उनके ये आखिरी शब्द मुझे तमाशा के लिए उत्साह से भर देते हैं।'

जॉब के दौरान ही स्ट्रीट प्ले
वह कहते हैं, 'तमाशा को कॅरियर बनाने में संघर्ष का सामना करना पड़ा। मुश्किल यह थी कि तमाशा को बचाऊं तो परिवार मुसीबत में होता और परिवार को बचाऊं तो तमाशा मरता। 1995 में मैंने सीए सुरेश गुप्ता के यहां प्राइवेट नौकरी जॉइन की। मैं सुबह 9 से शाम 7 बजे तक जॉब करता। रोचक यह था कि जॉब के दौरान ही मैं ऑफिस के ही काम से जब बाहर होता तो समय का इस तरह प्रबंध करता कि दो घंटे का स्ट्रीट प्ले भी हो जाए और जिस काम से बाहर निकला हूं, वह भी पूरा कर ऑफिस पहुंच जाऊं। जॉब के बाद मैं रवीन्द्र मंच पर थिएटर सीखने जाता और इसके बाद पिताजी के साथ दो घंटे तक रियाज करता। इसी रियाज का नतीजा है कि मैं अकेले छह घंटे तक गा सकता हूं।'