
गांव बुलाता है, लेकिन जाने का नहीं
ओम नागर. यह सृष्टि की मृत्यु के दिन नहीं। यह बिना मुकाबले डर के मर जाने के भी दिन नहीं। जीवन हताशाओं से नहीं, हौसलों से बनता है। जब चारो तरफ कोरोना वायरस का हाहाकार मचा है। तब यहां गांव-घर से दूर मुंबई में रह बसकर गांव की याद आना स्वाभाविक है। सुबह-शाम और दुपहर, बस निपट अकेलेपन में गुजर रही है। कुछ दिनों से सब अपने-अपने घरों में कैद हैं। यह स्वयं द्वारा शुरू की गई अनुशासित कैद है, जो मृत्यु से मुक्ति का अंतरिम उपाय भी है। जो जहां है, वहां रहे। गांव बुलाता है, लेकिन जाने का नहीं।
वो गांव जहां फसलें पकने को हैं। अभी कुछ सप्ताह पहले एक-दो दिन के लिए गांव जाना हुआ था। चने के घेघरों में हरे कच्च दानें हष्ट-पुष्ट होने को बेताब थे। मेड़ के पास तो अभी भी हल्के गुलाबी रंग के फूल खिले थे। खूशबू के धणी धनिये के सफेद फूल अब भी डालियों पर बचे थे। खेत हरे थे, लेकिन पीले पडऩे को थे। गेहूं की हरी बालियों में सोना अपनी आभा सहित उतरने लगा था। होलिका की अग्नि का ताप मौसम उष्ण बना रहा था। आज वो सब याद आ रहा है। यूं घर रोज बात होती है, लेकिन दूर दिशावर में होने से उदासी की एक बारीक-सी रेख तो चेहरे पर चस्पा रहती ही है। खिड़की से कभी दूर आसमान में उड़ते पंछियों को देखता रहता हूं, तो यूं ही एकटल हवा से हिलती पेड़ की डालियों का मन टटोलता रहता हूं।
मुंबई में अकेला रहता हूं। यहां की लंबी-लंबी दूरियों को लोकेल ट्रेन और बस से दफ्तर पहुंचना और फिर रात तक घर को लौटना, सप्ताह के पांच दिन कैसे फुर्र हो जाते, भनक तक नहीं लगती। अब शहर में कफ्र्यू लगा है। घर में अकेला हूं। सुबह -शाम में से जरूरत के लिए एक दफा बाहर निकलता हूं। सोसायटी के आस-पास से जो मिल जाता, वो लेकर लौट आता हूं। वीडियो कॉल से गांव में परिजनों से निरंतर बात भी होती हैं। उनकी तमाम चिंताओं को हंस कर टाल देता हूं। उन्हें एहतियात बरतने की हिदायतें देता रहता हूं।
गांववालों को इस असामयिक संकट की भयावहता और व्यापकता का अभी पूरा अंदाजा नहीं, लेकिन सब चेहरों पर उदासी का आलम पसरा है। उन्हें मेरी चिंता है, मुझे सबकी। उनकी लौट आने की जिद तो थी ही, लेकिन जब समझाया तो समझ भी आया कि ऐसे वक्त में जो जहां है, वो वहां रहें बस। इसी में सबका भला है।
कभी-कभी तो ऐसा लगता है, इस निपट अकेलेपन में कि व्यक्ति के पास स्मृतियों का अकूत खजाना हो, तो उन्हीं से गुजरते हुए भी दिन काट सकता है। किताबों के पन्ने पलटते हैं, तो कथा-कविताओं के कई पात्र और भाव-व्यंजनाएं, अंधेरे समय में उजाले की कंदील लेकर साथ चलती दिखती है।
संकट के समय गांव सदा से याद आते रहे हैं, क्योंकि हम देश दुनिया के किसी हिस्से में जिंदगी को बसर करें, लेकिन गांव हमारी आत्मा का अभिन्न हिस्सा है। वो हमारी साहित्य-रचनाओं में रह रहकर लौटता है। कभी माटी की सौंधी गंध-सा तो कभी खुरदरे यथार्थ के संग पलकें नम किए हुए आता है। किताबें पढऩे का मन होता है, तो पढ़ लेता हूं। अभी वर्तमान को ठीक से पढ़ लेना मुश्लि है। कल्पना के कैनवास पर उकरती भविष्य की सारी रेखाएं धुंधली नजर आती हैं, फिर भी एक चटक रंग के आकस्मिक उभर आने की आखिरी उम्मीदें धुंधली नहीं पड़ती। मनुष्य की यही जिजीविषा उसे अन्य प्राणियों से भिन्न बनाती है। यह जिजीविषा मानव सभ्यता पर आए इस खतरे के दौर में भी बनी रहें। सब यही चाहते हैं। जहां चाह, वहां राह, तो इस भंवर से निकलने की भी कोई तो राह होगी। कयामत के दौर में कायनात के बचे रहने की उम्मीद तो बचाए रखें। और समय हमारे भीतर मनुष्यता का विस्तार करें।
यह समय गांव लौटने का नहीं, उन लोगों को सैल्यूट करने का और यथायोग्य सहयोग करने का समय है, जो अपनी जान की परवाह किए बगैर मानवता की सेवा में मुस्तैद हैं। दिन ढलने को है, इस रात की भी सुबह जरूर होगी।
Published on:
29 Mar 2020 03:15 pm
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