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इंटरनेशनल पोएट रति सक्सेना युवाओं से पूछ रही हैं, कैसा लगता है क्वारेन्टाइन?

Lockdown में रहने को मजबूर है young generation भी, कैसा लगता होगा उन्हें घरों में कैद हो जाना? क्या वे सोचेंगे कि अपनी ओढ़ी हुई व्यस्तताओं और धारणाओं के चलते उन्होंने उम्रदराज लोगों को एकांत की ओर धकेला है...अभिभावकों की बेचैनी को समझना जरूरी है, और जरूरी है पढऩा... International Poet Rati Saxena की डायरी का यह भावुक पन्ना...

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जयपुर

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Uma Mishra

Apr 01, 2020

इंटरनेशनल पोएट रति सक्सेना युवाओं से पूछ रही हैं, कैसा लगता है क्वारेन्टाइन?

इंटरनेशनल पोएट रति सक्सेना युवाओं से पूछ रही हैं, कैसा लगता है क्वारेन्टाइन?

रति सक्सेना. आज युवाओं को दो दिन के क्वारेन्टाइन के वक्त ही छटपटाता देख रही हूं, तो बस यही ध्यान आकर्षित करना चाहती हूं कि समाज का एक वर्ग एकांत की छटपटाहट सालों से झेल रहा है, शायद ही कोई युवा उसे महसूस कर पाता हो। करीब तीन दशकों से युवाओं का अमेरिका-यूरोप पलायन साधारण-सी बात हो गई, केरल में घर-घर से युवा दुनिया में छितरे पड़े हैं, चीन में पढऩे वालों में सबसे ज्यादा संख्या केरलवासियों की ही होगी।


मैं अपनी यात्रा मुड़कर देखती हूं, 1996 में बड़ी बेटी की शादी हो गई, हम लोग इतने तैयार भी नहीं थे, मेरी उम्र बस 42 साल की थी, बड़ी की शादी के दो-चार महिनों बाद ही छोटी होस्टल में चली गई। प्रदीप (पति) ग्रुप डायरेक्टर बन गए थे, तो बस टूर या फिर दफ्तर में आठ-नौ बजे तक बैठना होता था। यह वक्त ऐसा था कि मैं चाहे तो निर्वाण ले सकती थी... यानी कि माया मोह को एक बड़ा धक्का। जो मेरी बेटियां थीं, जिनके साथ मेरा दिन के चौबीसों घंटों का था, वे दूर ही नहीं, पराई भी हो गईं। खैर उस वक्त मेरे पास नौकरी थी, रीते मन को लेकर भी मैं दुनिया को देख सकती थी, लेकिन मन इतना कच्चा हो गया था कि कोई मुझे बेटी की शादी की बधाई देता, तो मैं खुश होने की जगह रो पड़ती।
यदि मेरे पास लेखन नहीं होता, तो शायद पागल हो जाती।

लेकिन बड़ा एकांत तो राह में था, प्रदीप के रिटायरमेंट के वक्त मैं कालडी के विश्वविद्यालय में पढ़ा रही थी। साथ में कृत्या चला रही थी, और यही नहीं देश में होने वाले अधिकतर साहित्य समारोहों में आमंत्रित थी। तो मन के उस खाली कोने में बस तभी झांकती थी, जब रात हो जाती, और तब मेरी आंखें थमती नहीं थीं।


प्रदीप रिटायर्ड होते ही कोयम्बटूर में यूनीवर्सिटी में चले गए, एयरो स्पेस डिपार्टमेंट आरम्भ करने, और वहीं रम गए, शुरू में पारिवारिक फ्लैट नहीं मिला, तो वे गेस्टहाउस में थे और मैं त्रिवेन्द्रम में अकेली। मैंने अकेले चार लोगों का काम किया है, कभी सहायक नहीं रखा, नौकरी के साथ दुनिया के सारे काम और बेटियों की हॉबी क्लास आदि, लेखन तो बस बीच-बीच में , इसलिए जब ढेर-सा वक्त मेरी हथेली पर आ टपका तो समझ नहीं आया कि क्या करूं?


सच कहो, तो मेरे परिवार के लोग ही मुझे नहीं समझ रहे थे, प्रदीप ने तो सलाह दे दी कि भगवान के सामने बैठ कुछ जाप करूं, सच पूछो, इतना गुस्सा आया, फिर लगा कि यही तो हो रहा है समाज में, महिला पचास पार करती नहीं कि उससे कहा जाता है कि अब आपको क्या करना है? भगवान में ध्यान लगाइए। अपनी समस्या यह है कि जिन भगवानों की ये लोग बात करते हैं, हमने उनके इतिहास को सोलह साल की उम्र में ही पढऩा शुरू कर दिया था। गीता, उपनिषदें अठारह साल की उम्र में हाथ में थीं... खैर जी, तभी किसी अनजाने का फोन आया, मुझे याद नहीं, शायद बंद करने से पहले बस यूं ही सवाल दाग दिया कि आप क्या करती हैं?


मैं भरी बैठी थी, कुछ नहीं, यूनिवर्सिटी की नौकरी छोड़कर घर में बैठी हूं। लेकिन मैं उस अनजान को शुक्रिया कहूंगी, उसने कहा- बधाई, आप को अपने से संवाद करने का वक्त मिल रहा है, हमारे देश में कितनी महिलाएं हैं, जो अपने से संवाद कर पाती हैं, जो अपने आस पास रहती हैं, जो अपने को अपने से खुश करने की कोशिश करती हंै, एंजॉय कीजिये, नाचने की इच्छा हो तो भी दरवाजा बंद नहीं करना पड़ेगा।


यह था गीता वक्य मेरे लिए... यानी कि मेरा समय, मैं और मैं... मैंने लिखा, खूब लिखा, कृत्या साइट चलाई, और तभी भाग्य से बाहर से बुलावे आने शुरू हो गए। विदेश के बुलावो ने देश के बुलावा देने वालों को नाराज कर दिया, तो अब जाना होता है, तो बस बाहर।


कुछ ऐसे साल भी बीते कि मेरी विदेश की साल में पांच-पांच यात्राएं हो जातीं। मेरी जिंदगी बड़ी अजीब-सी हो गई, बाहर जाती तो शुरू में खुलने में दिक्कत होती, क्योंकि अधिकतर नये लोग थे, और घर में फिर सन्नाटा। जिम ज्वॉइन कर लिया था, जिससे शरीर के साथ मन को भी व्यायाम मिले। लेकिन बीच-बीच में हवा का झोंका खुश कर देता, मेरे होंठों ने बोलना बंद-सा कर दिया था, जबकि गजब की बकैत हूं मैं।


अब मैं साठ तक पहुंची, तो मुझे महसूस होने लगा कि समूह में भी अक्सर युवाओं की टोली बन जाती, जिसमें साठ से ऊपर अक्सर नहीं हुआ करते। और तभी 2016 से मेरा स्वास्थ्य खराब होने लगा, पहले चेस्ट इंफेक्शन से शुरुआत हुई, फिर एक के बाद एक बीमारियां धावा बोलती रहीं, फिर स्लिप ***** और अर्थराइटिस.... यानी कि पिछले तीन साल बीमारी में बीत गए, जब मुझे स्लिप ***** हुआ था, मैं अकेली थी, पड़ोस की एक लड़की को पैसा देकर अकेले अस्पताल गई, अकेले सारा इलाज झेला, स्थिति यह थी कि मैं बिना क्लचेस के चल नहीं सकती थी, और जिम जाना छूटा, छूटी दूसरी एक्सरसाइसेज।


मैं सारी बीमारियों को अकेले झेलती रही। अब भी हड्डियां तो बोल ही रही हैं, लेकिन बस छह महीने पहले प्रदीप ने बेटियों के जोर पर काम छोड़ा, अब हम दोनों अकेले हैं, अपनी-अपनी दुनिया में अकेले। मुझ से किसी ने पूछा, कैसा बीत रहा है क्वारेन्टाइन, मैंने कहा कि मैं तो पिछले चार सालों से क्वारेन्टाइन में ही हूं, और बीच-बीच में जाती रही हूं।
अब सवाल युवाओं से...


कैसा लगता है क्वारेन्टाइन? क्या समझ पाते हो उम्रदराजों का अकेलापन? क्यों सोचता है समाज कि साठ पार करते ही अम्मा के हाथ में माला थमा दो, मेरी जैसी भी तो होंगी, जो तुम्हें कुछ दे ही सकती है, काफी है मेरे पास युवाओं को देने के लिए, पूरब का सांस्कृतिक इतिहास, वेद उपनिषद की कहानियां... और दुनिया की कहानियां, मेरी यात्राओं के दौरान हुए बेहतरीन अनुभव, जिन्हें कहना चाहती हूं, बोलना चाहती हूं, लिखना नहीं...मंै लिखते लिखे उकता गई हूं... लेकिन कोई समझेगा, नहीं जी नहीं, कोई अभी नहीं समझेगा... ना जानना चाहेगा।