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प्रतिपक्ष बिना लोकतंत्र अधूरा

विकल्पहीनता की स्थिति किसी भी लोकतंत्र के लिए कुपोषणकारी सिद्ध होती है। फिर चाहे, वह जर्मनी का लोकतंत्र हो या इटली का समाजवाद।

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modi and sonia

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राजेंद्र शर्मा/ जयपुर। विकल्पहीनता की स्थिति किसी भी लोकतंत्र के लिए कुपोषणकारी सिद्ध होती है। फिर चाहे, वह जर्मनी का लोकतंत्र हो या इटली का समाजवाद। भारत तो विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का गौरव रखता है। फिलहाल, देश में विपक्ष अवसाद में और सत्ता आत्म मुग्धता में है। वर्ष २०१४ के आम चुनाव, फिर उत्तर प्रदेश में मिली बड़ी हार ने विपक्षी एकता को तार-तार किया, तो राष्ट्रपति चुनाव में बड़े घटक के टूट जाने ने मानो वज्रपात-सा कर दिया। इन हालात के आलोक में ज्यादातर राजनीतिक पे्रक्षक मान बैठे हैं कि विपक्ष में लडऩे लायक ताकत नहीं रही। ठीक है, सामने जो दिख रहा है उससे तो यह बात तथ्यात्मक प्रतीत होती है, लेकिन सोलह आने गले भी नहीं उतरती।

अतीत में जाएं तो साफ हो जाता है कि कांग्रेस कई बार पराजित हुई है। वर्ष 1977 से 2014 तक आधा दर्जन बार इस पार्टी को शिकस्त का सामना करना पड़ा है। साठ के दशक के शुरू में सत्ता का पर्याय बन चुकी कांग्रेस को कोई चुनौती नहीं दिख रही थी। तभी 1964 में जवाहरलाल नेहरू और फिर 1966 में लालबहादुर शास्त्री का देहावसान होने से मजबूत दिखती कांग्रेस हिल गई। उसी दौरान समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया ने 'कांग्रेस हटाओ-देश बचाओ' का नारा देकर विपक्ष को एक किया। इसका जोरदार असर हुआ, और नौ बड़े राज्यों पश्चिम बंगाल, बिहार, उड़ीसा (ओडिशा), मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, केरल, हरियाणा, पंजाब और उत्तरप्रदेश में गैर कांग्रेसी सरकारें बनी।

साथ ही, केंद्र में कांग्रेस364 (1962) से 283 सीटों पर आ गई। सत्ता तो मिल गई, लेकिन हार की लटकती तलवार के साए में। इसके बाद नजर डालें, तो आजादी के बाद पहली बार कांग्रेस को सबसे बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा 1977 के आम चुनाव में। इंदिरा गांधी के आपातकाल (विकल्पहीनता की स्थिति का परिणाम) के खिलाफ विपक्ष एक हुआ जनता पार्टी के नाम से और 330 सीट के साथ सत्ता में आया। फिर, 1980 में मध्यावधि चुनाव हुए और कांग्रेस सत्ता में लौटी। आठवीं लोकसभा के 1984 में हुए चुनाव में सहानुभूति लहर (इंदिरा गांधी की हत्या) में कांग्रेस ने 401 सीट हासिल की, तो 1989 में बोफोर्स घोटाले के आरोप के साए में कांग्रेस दूसरी बार सत्ताच्युत हुई। इसके बाद 1997 से 2004 तक भी कांग्रेस विपक्ष में बैठी। कुल सोलह आम चुनावों में से दस में कांग्रेस सत्ता में आई। छह बार पूर्ण बहुमत से और चार बार गठबंधन का नेतृत्व करते हुए। जाहिर है, कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई भी तो लौटी है, कभी खुद के बूते तो कभी गठबंधन के सहारे।

यूपीए जोडऩे के प्रयास
वर्तमान में कांग्रेस नीत यूपीए फिर सत्ता के बाहर है। विपक्षी एकता फिर टूट रही है। ऐसे में विकल्प के रूप में उभरना तो दूर की बात फिलहाल सभी विपक्षी दलों को साथ लाने के कांग्रेस के प्रयास भी नाकाफी सिद्ध हो रहे हैं। हाल ही, 11 अगस्त को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाई। इस बैठक के लिए न्योता तो दिया गया था 18 दलों को, लेकिन शामिल हुए केवल तेरह। इन एकत्र हुए दलों का आत्मविश्वास डगमगाया हुआ लगा।

यह बात जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के इस ट्वीट से जाहिर हो जाती है, 'विपक्ष की एकता एक मिथक है और 2019 में फिर भाजपा की सरकार बनेगी।' साथ ही, छोटे दलों में मची हड़बड़ी राजनीतिक घबराहट उजागर कर रही है। बिहार का महागठबंधन टूट चुका है। जेडीयू नीतिश और शरद यादव खेमे में बंटना तय है, तो लालूप्रसाद यादव, मायावती और अखिलेश यादव जैसे क्षेत्रीय क्षत्रप अपने राज्यों में ही उलझे पड़े हैं। फिर भी, हम यह भूल जाते हैं कि भाजपा नीत एनडीए 18 राज्यों में भले ही सत्ता में हो, लेकिन 1967 की तरह अभी भी पश्चिम बंगाल, ओडिशा, तमिलनाडु, केरल, पंजाब जैसे बड़े राज्यों में सत्ता तो दूर विपक्ष की भूमिका भी मजबूती से निभाने की स्थिति में भी नहीं है। तो, कुछ राज्यों में बहुमत-अल्पमत के बीच बारीक रेखा पर है।

क्षेत्रीय हितों में उलझे दल
दक्षिण भारत के तीन दलों तमिलनाडु में सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक, आंध्र प्रदेश में वाई एस जगनमोहन रेड्डी की अगुआई वाली वाईएसआर कांग्रेस और तेलंगाना में सत्तारूढ़ तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) भले ही राष्ट्रपति चुनाव में एनडीए प्रत्याशी के समर्थन में रही हो, लेकिन अपने-अपने क्षेत्रीय हितों के कारण तटस्थ की स्थिति में हैं। इनकी स्थिति 'अपनी मर्जऱ्ी से कहां अपने सफर के हम हैं, रुख हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं' वाली है। इनसे संपर्क और भरोसा दिलाने वाला गठबंधन इनको साथ ले सकता है। वैसे, कांग्रेस ने अकेले और उसके नेतृत्व में यूपीए ने पहले भी उम्मीद खत्म होने के बाद भी सत्ता हासिल की है। लेकिन, इस बार ऐसा लगता है कि कांग्रेस को कुछ त्याग करने ही पड़ेंगे, अन्यथा उसका नेतृत्व व्यक्ति विशेष की खिलाफत के नाम से तो एकबारगी भले ही स्वीकार्य हो जाए, लेकिन लम्बा नहीं चल पाएगा।

परिवारवाद बड़ी बाधा
कांग्रेस पर वैसे तो भ्रष्टाचार के आरोप लगते रहे हैं, लेकिन सबसे बड़ा जो आरोप लगता रहा है वह है परिवारवाद का। अब अन्य दल या देश परिवारवाद को योग्यता की कसौटी पर कसे बिना स्वीकार करता नहीं दिखता। कांग्रेस, खासकर सोनिया गांधी यदि किसी साफ छवि के अन्य नेता को पार्टी और गठबंधन के नेता के रूप में पेश करे तो हालात पलट सकते हैं। इसमें दलित कार्ड भी खेले जाने की भी गुंजाइश है।