
कविता-मैंने देखा है
मनोज शर्मा
ये हो सकता है कि तुम
ज्येष्ठ की गर्मियों में दग्ध हुई
घमौरियों से भरी अपनी पीठ
जब आषाढ़ के बादलों से आती
पहली फुहार के सामने करो
तो शीतल जल के स्थान पर
तेजाब बरस जाए
और तेजाब के छीटों से तर हो जाए पीठ तुम्हारी
जानलेवा फफोलों से भरी हुई
ये भी हो सकता है कि
तुम जिस रस्सी से सदैव ही बाल्टी बांध
कंठ तर करने हेतु
कुएं से पानी खींचते रहे
वह रस्सी कभी रस्सी रही ही न हो
तुम सर्प को ही रस्सी समझते रहे हो
और सर्प इसी ताक में शांत रहा हो कि
तुम्हारे प्रथम असावधान क्षणों में
अपने दो खोखले दांतों से
प्रविष्ट कर दे विष
तुम्हारी मांसपेशियों में
ये भी हो सकता है कि
तुम जिसे प्रकाश वाटिका समझ
उसके अनन्य प्रकाश में
अद्भुत रचने का सोच रहे हो
वह घोर श्वेतांधकार हो
जो हर ले अंतत:
तुम्हारी अपनी दृष्टि भी
क्योंकि मैंने देखी है
आषाढ़ की तेजाबी बारिश
मैंने देखा है रस्सी को सांप में बदलते
और बदलते
प्रकाशवाटिका को भी श्वेतांधकार में
मैंने देखा है।
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Published on:
01 Jan 2022 06:40 pm
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