
आशीष दीप
पोखरण-2 सिर्फ एक परमाणु परीक्षण नहीं था, यह भारत की वैज्ञानिक क्षमता, राजनीतिक इच्छाशक्ति और आत्मनिर्भरता का ऐतिहासिक प्रदर्शन था। इस मिशन ने साबित किया कि जब संकल्प अडिग हो, तो दुनिया की कोई ताकत भारत को रोक नहीं सकती। इस मुद्दे पर हमने पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम के सलाहकार रहे सृजन पाल सिंह से खास बात की। पेश हैं बातचीत के मुख्य अंश।
पोखरण-2 टेस्ट में हमें हाइड्रोजन बम की टेस्टिंग करनी थी। इसे यूरेनियम के जरिए न्यूक्लियर फिजन बम को टेस्ट किया जाना था। साथ ही अंडरग्राउंड टेस्टिंग में महारत हासिल करनी थी।
पोखरण-2 दरअसल पूर्व प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव का खुफिया मिशन था। वह भारत को परमाणु शक्ति बनाना चाहते थे। इसलिए इस प्रोजेक्ट की जिम्मेदारी उन्होंने डॉ. कलाम को दी थी। डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम 1990 में ही यह टेस्ट करना चाहते थे, लेकिन अमेरीका के चलते नहीं हो पाया। न्यूक्लियर टेस्ट को जिन सीनियर वैज्ञानिकों की टीम हैंडल कर रही थी, डॉ. कलाम उसका अहम हिस्सा थे।
डॉ. कलाम टेस्ट की तैयारी कर रहे थे तभी लोकसभा चुनाव आ गए तो नरसिम्हा राव ने कहा कि इसे चुनाव बाद किया जाएगा। चुनाव हुए, लेकिन किसी दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। लिहाजा सबसे ज्यादा सीट लाने वाली बीजेपी की सरकार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में बनी, लेकिन नरसिम्हा राव ने अपने मिशन को नहीं त्यागा। उन्होंने वाजपेयी को डॉ. कलाम से मिलवाया और कहा कि इनके पास एक बहुत ही शानदार प्रोजेक्ट है। वाजपेयी ने पूरी कहानी जानने के बाद इसे जारी रखने की हामी भर दी।
1996 के चुनाव के बाद केंद्र में काफी राजनीतिक उथलपुथल चल रही थी। नरसिम्हा राव ने अटल बिहारी वाजपेयी के पीएम बनने के बाद साफ लफ्जों में कहा था कि भारत परमाणु शक्ति बन जाता है तो बहुत अच्छा होगा, लेकिन मुझे इसका श्रेय नहीं चाहिए। सृजन सिंह के मुताबिक डॉ. कलाम की नजरों में नरसिम्हा राव का यह बहुत बड़ा बलिदान था।
90 के दशक में अमरीका की दादागीरी पूरी दुनिया पर हावी थी। पोखरण-2 को लेकर भी वह दबाव बना रहा था। उसका मकसद था कि इसे किसी तरह न होने दिया जाए। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी के आने के बाद पोखरण-2 को नई ताकत मिली। उनकी पॉलिटिकल विल की बदौलत ही भारत टेस्ट कर पाया।
पोखरण-2 का परीक्षण करने के लिए जगह, महीना सब फाइनल हो चुका था। डॉ. कलाम का मत था कि हम इसे रेगिस्तान में करेंगे और ऐसे टाइम जब जीवन यापन सबसे कठिन होता है यानी गर्मी में। पोखरण की आबोहवा आम जनता के जीवन यापन लायक नहीं है क्योंकि रेगिस्तान है जो दिन बहुत गर्म और रात सर्द होती है। लेकिन डॉ. कलाम ने सब विषमताओं को जानते हुए भी पोखरण को चुना।
खुफिया एजेंसियों को छकाने के लिए भारतीय सेना की मदद ली गई। सभी वैज्ञानिक आर्मी मैन की तरह काम कर रहे थे। उनकी वर्दी, बदले हुए नाम, टेंट में रहना आदि ऐहतियाती उपाय कर रहे थे ताकि मिशन को पूरी तरह सीक्रेट रखा जाए।
डॉ. कलाम जानते थे कि अमरीका या किसी दूसरे पश्चिमी देश की खुफिया एजेंसी की नजरें भारत के न्यूक्लियर टेस्ट पर हैं। इसलिए उन्होंने ऐसा स्थान जानबूझकर चुना था। खुफिया एजेंसियां सैटेलाइट या लोकल एजेंट के जरिए किसी बात की टोह लेती हैं। इसलिए उन्होंने इसरो के साथ मिलकर ब्लाइंड स्पॉट चुने। जब भी विदेशी खुफिया सैटेलाइट भारतीय बाउंड्री को स्कैन करती तो इसरो खबरदार कर देता था। उस दौरान कोई मूवमेंट या काम रोक दिया जाता था। टीम दिन में तपती दोपहरी में काम करती थी ताकि किसी को शक भी न हो।
डॉ. कलाम बताते थे कि पोखरण-2 के समय हमने कई रातें टेंट में बिताईं। इसके पीछे वजह यह थी कि किसी को इस बात का शक न हो कि यहां न्यूक्लियर टेस्ट की तैयारी चल रही है। टेंट में रहेंगे तो सब सोचेंगे आर्मी के लोग हैं, कोई बड़ा वीवीआईपी नहीं है। वहां उस दौरान 75 साइंटिस्ट काम कर रहे थे, जो अलग-अलग संस्थान से थे।
पोखरण-2 टेस्ट के बाद पूरी दुनिया में भारत का डंका बच गया था। इसमें भारतीय मीडिया का अहम रोल रहा। न उसने पूरे मिशन की न कोई तहकीकात की और जब हम पर अमरीका ने सेंक्शन लगा दिया तो भी मीडिया ने किसी भी तरह से सरकार या टेस्ट को जिम्मेदार ठहराया। मेरे अनुभव में यहां मीडिया ने कुलमिलाकर पूरे देश में राष्ट्रवाद की लहर भरने का काम किया।
पोखरण-2 के संघर्ष, सफर और सफलता की कहानी हमें बच्चों के लिए जरूर डॉक्युमेंट करनी चाहिए। हम पाकिस्तान के साथ मौजूदा संघर्ष की बात करें तो भारत अपने दम पर उसे सबक सिखा पाया है। पाकिस्तान को तुर्किए, चीन जैसे देशों की मदद मिल रही थी। लेकिन हम अकेले और निडर होकर लड़े।
भारत पाकिस्तान को मुंह की खाने में डॉ. कलाम की मदद से कामयाब हो पाया। यह सुनकर थोड़ा आर्श्चय होगा लेकिन सेना जिन हथियारों के दम पर लड़ी उनमें से 70 फीसद में डॉ. साहब का योगदान है।
Updated on:
12 May 2025 03:00 pm
Published on:
10 May 2025 10:52 pm
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