
Karpoor Chandra Kulish ji
राजस्थान पत्रिका के रूप में जो पौधा उन्होंने रोपा वह आज एक विशाल वट वृक्ष का रूप ले चुका है। जिन नीति -सिद्धांतों और मूल्यों के लिए उन्होंने राजस्थान पत्रिका की नींव रखी, इस अवसर पर उनका स्मरण किया जाना जरूरी है। वह भी ऐसे मौके पर जब निष्पक्ष एवं निर्भीक पत्रकारिता और उसके मूल्यों पर खूब हमले हो रहे हैं।
कुलिश जी ऐसे पत्रकार थे जिन्होंने तमाम दबावों की परवाह किए बिना पत्रकारिता धर्म का निर्वाह किया। पचास के दशक में मोटे तौर पर महानगरों से प्रकाशित कुछ बड़े अंग्रेजी अखबारों का ही दैनिक अखबारों मेंं वर्चस्व नजर आता था। इन अखबारों का संचालन भी बड़े उद्योगपतियों के हाथ में ही था। बदलाव आया तो सिर्फ इतना कि तब देश अंग्रेजों की दासता से मुक्त हो गया था। ऐसे माहौल में 7 मार्च 1956 का दिन राजस्थान की पत्रकारिता के इतिहास में निश्चित ही स्वर्णाक्षरों में लिखे जाने वाला दिन था जब दूसरे समाचार पत्र की नौकरी छोडकऱ श्रद्धेय कर्पूरचन्द्र कुलिश ने मात्र पांच सौ रुपए की उधार की पूंजी से राजस्थान पत्रिका के नाम से सायंकालीन दैनिक की शुरुआत की।
कुलिश जी का जन्म 20 मार्च 1926 को राजस्थान के टोंक जिले के सोडा गांव में हुआ। बचपन, ननिहाल मालपुरा में बीता। वहीं प्रारंभिक शिक्षा हुई। बचपन से ही प्रतिभा के धनी कुलिश जी के जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव आए। अपनी प्रारंभिक शिक्षा में आए गतिरोध को तोडऩे कुलिश जी जयपुर आ गए। शुरुआती दौर में उन्होंने साहित्य और पत्रकारिता का एक साथ निर्वाह किया। धीरे-धीरे वे साहित्य से पत्रकारिता की ओर मुड़ गए। अपने आत्मकथ्य ‘धाराप्रवाह’ में श्रद्धेय कर्पूरचन्द्र कुलिश ने उन परिस्थितियों का जिक्र किया है जिनके कारण राजस्थान पत्रिका की नींव रखी गई। उनका कहना था कि राष्ट्रदूत में नौकरी करते हुए लगा कि वे क्या लिखते हैं, इस पर नजर रखी जा रही है। धाराप्रवाह में उन्हीं के शब्दों में ‘मुझे यह अंकुश बर्दाश्त नहीं हुआ, विरोधस्वरूप मैंने अपना त्यागपत्र भेज दिया। मैं यह तय कर चुका था कि अब मुझे यहां काम नहीं करना है। व्यवहार सबके मुझसे अच्छे थे। पर सैद्धांतिक मतभेदों की जो खाई बन गई थी....अब उसे पाटना संभव नहीं था। राष्ट्रदूत से विदा ले ली। बस तभी से मन में बैठ गया कि अगर कोई अखबार हो तो ऐसा हो .. जिसमें इस तरह के समझौते नहीं करने पड़ें।’
अपनी शुरुआत से ही पत्रिका ने पाठकों में पैठ बनाना शुरू कर दिया था। ‘पत्रिका’ के प्रारंभिक काल में तीन बड़े जन आंदोलन जयपुर में हुए। एक, शिक्षा शुल्क वृद्धि विरुद्ध छात्र आंदोलन, दूसरा चुंगी वृद्धि विरोधी आंदोलन और तीसरा, जयपुर से राजस्थान हाईकोर्ट की बैंच समाप्त करने के विरुद्ध आंदोलन। इन तीनों में ‘पत्रिका’ ने सक्रिय भूमिका अदा की। सत्ता के बेहतर काम का समर्थन और गलत काम का विरोध पत्रिका ने हमेशा किया। इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ नारे और भारत-पाक युद्ध में भारत सरकार की भूमिका का कुलिश जी ने अपने संपादकीय में खुला समर्थन किया। दूसरी ओर, जून 1975 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा उनका चुनाव अवैध घोषित किए जाने के बाद भी सत्ता में बने रहने के लिए इंदिरा गांधीे ने देश में आपातकाल लगा दिया तो कुलिश जी के तेवर तीखे थे। उन्होंने अपने हस्ताक्षरित पांच लेख लिखे और श्रीमती गांधी से त्याग पत्र मांगा। केंद्र सरकार इतनी नाराज हो गई कि आपातकाल के प्रथम दिन ही कुलिश जी के गिरफ्तार किए जाने की आशंका हो गई थी। समाचार पत्रों पर सेंसरशिप लागू हो गई। सरकार ने ‘पत्रिका’ को आपातकाल के विरोध का अतिरिक्तांक छापने नहीं दिया और बिजली काट दी। पहला अंक बिना संपादकीय के छपा।
19 माह के आपातकाल के दौर में ‘पत्रिका’ के कई समाचारों पर कैंची चलाई गई। कुलिश जी ने नौकरशाहों की कार्यशैली पर सदैव प्रहार किए। उन्होंने लिखा भी कि यह देख कर दर्द होता है, और शर्म भी आती है कि जिन लोगों को नीतियां बनाने और अमल में लाने के लिए चुना जाता है, उनका पूरा नहीं तो ज्यादातर समय तबादले करने या रुकवाने में जाता है और शेष समय तथाकथित ‘जनसम्पर्क’ में। तहसील से लेकर सचिवालय तक काम-काजी आदमी फैसलों के इंतजार में चक्कर लगाते रहते हैं लेकिन फाइल एक मेज से दूसरी मेज तक पहुंचने का नाम नहीं लेती। कमोबेश आज भी नौकरशाही का चरित्र ऐसा ही है।
इतना ही नहीं चुनाव खर्च सीमा को लेकर होने वाले हेर-फेर को लेकर भी उन्होंने चिंता जताई। अपने एक संपादकीय में कुलिश जी ने लिखा भी- ‘मिथ्याचार का सबसे बड़ा नमूना यह है कि हर कोई विधायक और लोकसभा सदस्य अपने चुनाव में लाखों रुपए खर्च करके चुनाव आयोग को खर्च का झूठा हिसाब पेश करता है। ये मिथ्याचारी विधानसभाओं में और लोकसभा में बैठकर कानून बनाते हैं और शासन चलाते हैं। मिथ्याचार और काले धन पर आधारित यह लोकतंत्र कितना सत्यानुगामी होगा, यह आंखों के सामने है। अखबार में प्रमाणिक खबरें हों इसके वे पक्षधर थे। वे कहते भी थे कि अखबार कागज की नाव होता है। बहुत नाजुक होता है, और इसे गंभीर परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है। इसके भीतर छोटा सा भी छेद हो जाए तो नाव को ले डूबता है। उनका मानना था कि अखबार में खबरों के माध्यम से जलजला लाकर.. सनसनी पैदा करके... प्रसार बढ़ाना एक अलग पक्ष है। किसी व्यक्ति के विश्वास की रक्षा करना अलग, यदि इन दोनों की तुलना का प्रश्न उठे तो मैं हर परिस्थिति में विश्वास को प्रथम वरीयता देता हूं।
पाठक को सर्वोपरि मानने की कुलिश जी की दृष्टि हमेशा रही. आज भी पत्रिका इसी ध्येय पर है कि अखबार के लिए पाठक से बढक़र कोई शक्ति नहीं है। कुलिश जी का मानना था कि अखबार का असली उद्देश्य है कि जनसामान्य तक अपनी बात विश्वसनीयता से पहुंचे, जनता के मन में उसके प्रति आस्था हो, उसकी बातों का आम पाठक पर असर हो, तभी अखबार के प्रति लोगों का रुझान बढ़ेगा। कुलिशजी की मान्यता रही कि समाचार पत्र प्रकाशन एक पवित्र व्यवसाय है, जिसका उद्देश्य लोगों में जागरूकता उत्पन्न करना है। समाज के काम में उसे भागीदारी करनी चाहिए व सामाजिक उत्तरदायित्व पूरी जिम्मेदारी से निभाना चाहिए।
कुलिशजी हमेशा आशावादी रहे व उन्हें इतना आत्मविश्वास था कि वे किसी भी परिस्थिति में विचलित नहीं हुए। उन्होंने जब जरूरत हुई, वैसी जोखिम उठा ली। उनके सामने परीक्षा के कई क्षण आए किंतु कोई भी उनका साथ छोडक़र नहीं गया। वे पाठकों के प्रति निष्ठावान थे व हमेशा सतर्क रहते थे। कहीं कोई भूल किसी से नहीं हो जाए। पत्रकार के रूप में सच्चाई उजागर करने को तो वे सबसे बड़ा धर्म मानते थे। लेकिन दिल इतना बड़ा था कि अपनी कमजोर आर्थिक स्थिति के दौर में भी उन्होंने लोगों की आर्थिक मदद करने का प्रयास किया। छोटे-बड़े, अपने-पराये, गरीब-अमीर सभी तरह के लोगों में घुलने-मिलने की उनकी ऐसी शानदार प्रवृत्ति थी कि मिलने के बाद कोई व्यक्ति सोच भी नहीं सकता था कि वह इतने बड़े आदमी के साथ हैं।
Updated on:
20 Mar 2022 07:11 am
Published on:
20 Mar 2020 11:54 am
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