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फूफी कह सांभर की बातां, पगड़ी खोस लई घर जाता

नमक के लिए मशहूर सांभर का पौराणिक इतिहास रहा है। साथ ही यह जगह पुराने युद्धों के लिए भी मशहूर रही है। सांभर युद्ध में फूफी रासो की रचना पर आधारित जितेंद्र सिंह शेखावत की रिपोर्ट-

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फूफी कह सांभर की बातां, पगड़ी खोस लई घर जाता

फूफी कह सांभर की बातां, पगड़ी खोस लई घर जाता

हजारों पक्षियों की दर्दनाक मौत की वजह से देश में चर्चित सांभर झील सन् 1708 में कछवाहों और सैयदों के बीच युद्ध के कारण खूब मशहूर रही। आमेर को मोमीनाबाद बनाने के बाद कछवाहा और मारवाड़ की सेना ने सांभर के नलियासर में संग्राम किया। उस समय सांभर के पास मंडपी के चारण कवि मुरारीदान बारहठ ने इस युद्ध का आंखों देखा वर्णन 'फूफी रासो के शीर्षक से रचना में किया था। उन्होंने 'फूफी कह सांभर की बातां, पगड़ी खोस लई घर जातांÓ के नाम से ढूंढाड़ी में लिखी रचना में जंग का हाल लिखा। उन्होंने युद्ध से भागे राजपूत सामंतों व जागीरदारों के बारे में खुलकर लिखा। चारण की इस रचना ने राजपूताना के सामंतों व जागीरदारों में तहलका मचा दिया था। साहित्य जगत में खूब प्रसिद्ध 'फूफी रासोÓ रचना के दोहों को आज भी गावों में बुजुर्ग लोग सुनाते हैं। मुरारीदान बारहठ उस सामंती युग का ऐसा निर्भीक कवि रहा, जिसने युद्ध में पीठ दिखाकर भागने वाले सामंतों के खिलाफ बिना डरे सच को उजागर कर दिया था। कवि ने रचना के अंत में लिखा है..'भूंडी अथवा भली, है विधना के हाथ, कवि को कहनी पड़ी देखी जैसी बात।'
३ अक्टूबर 1708 को कछवाहों और आमेर के मुगल फौजदार गैरत खान, मेवात के सैयद हुसैन खान की सेना के बीच युद्ध में एक बार तो राजपूत सेना परास्त होकर भागने लगी। मुगल सेना को युद्ध में विजय मिल गई। जीतने के बाद मुगल सेना खुशी में उल्लास मना रही थी तब उनियारा के संग्राम सिंह ने दो हजार सैनिकों के साथ मुगलों के शिविर पर हमला कर दोनों मुगल फौजदारों सहित दो हजार सैनिकों को मार भगाया और सांभर पर फिर से कब्जा कर लिया। राजपूत सेना ने सांभर के फौजदार अली अहमद को बंदी बनाकर सांभर में विजय पताका फहरा दी थी। कवि मुरारीदान बारहठ ने रचना में लिखा कि युद्ध में मरे सैनिकों के शवों का मांस गिद्ध खा रहे थे। युद्ध में विजय के बाद आमेर के कछवाह नरेश सवाई जयसिंह द्वितीय और मारवाड़ नरेश अजीत सिंह ने सांभर को आधा-आधा बांट लिया। इस वजह से इतिहास में सांभर को दो राज्यों का शामलात नगर कहा गया है। इतिहास में सांभर का नाम नमकसर भी लिखा है।
मुगलों से पहले सांभर चौहान शासकों की राजधानी रहा। वर्ष 1009 में महमूद गजनवी ने सांभर पर आक्रमण कर चौहान राजा गोविंदराज तृतीय को हराया। संत दादूदयाल भी अपने शिष्यों के साथ सांभर होते हुए नरेना गए। पुरातत्व विभाग ने सांभर के नलियासर में खुदाई कर ध्वस्त हुए प्राचीन नगर के अवशेष निकाले। औरंगजेब के समय फारसी में लिखे इतिहास 'खुलाश्त-उल-तवारीफ में सांभर झील के पानी से नमक बनाने की विधि का वर्णन किया गया है। अकबर भी सांभर होते हुए ख्वाजा साहब की दरगाह तक पैदल गया था। तब कोस मीनारों और कुओं का निर्माण हुआ । अकबर के समय सांभर के नमक से सालाना ढाई लाख रुपए और जहांगीर के समय तीन लाख और औरंगजेब के शासन में आमदनी 15 लाख सालाना हो गई थी।


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