
सचिन माथुर/ सीकर।
राजनीति कई रोचक रंगों से रंगी है। ऐसा ही एक रोचक तथ्य राजस्थान के तीन बार मुख्यमंत्री व उपराष्ट्रपति रहे भैरोंसिंह शेखावत से भी जुड़ा है। कम ही लोग जानते हैं कि भैरोसिंह शेखावत को विधानसभा चुनाव की पहला टिकट संयोग से मिला था। दरअसल जनसंघ ने पहले उनके भाई बिशन सिंह शेखावत को चुनावी मैदान में उतारना तय किया था। इसके लिए शहर में घंटाघर के पास स्थित जनसंघ कार्यालय में आलाकमान की मंशानुसार जनसंघ नेता जगदीश प्रसाद माथुर ने उनके सामने इसका प्रस्ताव रखा था। पर उन्होंने चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया।
संयोग से उस समय उनके भाई भैरोंसिंह पुलिस की नौकरी छोड़ चुके थे। ऐसे में उन्होंने उनके बेहतर जनसंपर्क का हवाला देते हुए उन्हें उम्मीदवार बनाने की बात रखी, जिसे तत्कालीन नेता सुंदर सिंह भंडारी तक पहुंचाया तो वे इस पर सहमत हो गए। इसके बाद उन्हें प्रदेश के पहले चुनाव के लिए दांतारामगढ़ से उम्मीदवार चुना गया।
आडवाणी ने भी किया जिक्र
भैरोंसिंह शेखावत से पहले बिशन सिंह को टिकट देने का जिक्र भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी भी कर चुके हैं। 1990 में चौमू में एक सभा में उन्होंने कहा था कि वे दांतारामगढ़ से बिशन सिंह को चुनाव लड़वाना चाहते थे। पर प्रस्ताव रखने पर वे भाई भैरोसिंह शेखावत को मेरे पास लाए, जिनसे बात करने पर वे काफी प्रभावित हुए और उन्होंने दांतारामगढ़ से भैरोंसिंह शेखावत की उम्मीदवारी का समर्थन किया।
चुनाव लड़ने के नहीं थे रुपए, जीता चुनाव
टिकट मिलने के बाद भी भैरोंसिंह शेखावत के लिए चुनाव लड़ना बड़ी चुनौती था। उनके पास पर्याप्त अर्थ का अभाव था। सीकर के जनसंघ कार्यालय में खुद उन्होंने ये परेशानी तत्कालीन जनसंघ के नेताओं के सामने भी रखी थी। जहां जनसंघ के उत्साही कार्यकर्ता किशन सिंह हाजरिका ने चुनावी मद के लिए 50 रुपए देकर उन्हें निश्चिंत होकर चुनाव लड़ने का आश्वासन दिया। इस पर भैरोंसिंह ने किशन सिंह को सेठ की पदवी भी दी। इसके बाद तो पार्टी फंड में रुपये भी बढ़ेे और भैरोंसिंह शेखावत ने कांग्रेस उम्मीदवार विद्याधर कुल्हरी को 2833 मतों से शिकस्त भी दी।
दरअसल, भैरोंसिंह शेखावत 1952 से पहले पुलिस में कार्य करते थे, किन्ही व्यक्तिगत कारणों से उन्होने पुलिस की नौकरी छोड दी व अपने गांव खाचरियावास में आकर रहने लगे। उन दिनो बिशन सिंह शेखावाटी क्षेत्र के प्रमुख आरएसएस के प्रचारक थे। बिशन सिंह की सादगी, ईमानदारी व निर्भिकता विशेष रूप से तत्कालीन जागीरदारों व सामंतों के विरूद्ध उनके द्वारा किए गये संघर्षों से आम जनता के वे लाडले बन चुके थे। विषेष रूप से सीकर, फतेहपुर, लोसल, रामगढ शेखावाटी, दांतारामगढ के आस पास के क्षेत्रों में उनका अत्यधिक सम्मान था, वे उन्ही दिनो राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘ वीर अर्जुन ’ जिसके सम्पादक स्व. अटल बिहारी वाजपेयी स्वयं थे, के भी स्थानीय संवाददाता का कार्य भी कर रहे थे।
प्रथम आम चुनाव 1952 की घोषणा के बाद जनसंघ ने अपने उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारने पर विचार आरम्भ किया, स्थानीय कार्यकर्ताओं व आम जनता ने बिशन सिंह की लोकप्रियता के चलते उन्हे जनसंघ का उम्मीदवार दातारामगढ से बनाये जाने का मानो अन्तिम निर्णय कर लिया, तत्कालीन राज्य की राजनीति में अपना एक विशेष स्थान रखने वाले ठाकुर मदन सिंह दांता भी बिशन सिंह के व्यक्तित्व से अत्यधिक प्रभावित थे, व सिर्फ उनके नाम पर ही सहमत थे
बिशन सिंह शेखावत अपने बडे भाई भैरोंसिंह शेखावत का सम्मान ठीक उसी तरह से करते थे जैसे रामायण में राम एवं लक्ष्मण के संबंधों को चित्रित किया गया है, बडे भाई भैंरोंसिंह के पुलिस की नौकरी छोडकर गांव में उनकी विकसित हो रही एकान्त प्रवृति से वे मन ही मन में अत्यधिक दुखी थे, उनका बडा भाई भैंरोंसिंह किस तरह पुनः सक्रिय हों, यह विचार उनके मन को विचलित किए हुए था।
जयपुर में भी लाल कृष्ण आडवाणी को भी यह जानकारी थी कि बिशन सिंह ही उनके दातारामगढ से पार्टी के प्रभावी उम्मीदवार हो सकते हैं, आखिर बिशन सिंह से जयपुर में आडवाणी ने चर्चा की व उनकी लोकप्रियता व स्थानीय कार्यकर्ताओं की आम राय के आधार पर उन्हे दांतारामगढ से पार्टी का प्रत्याषी बनाये जाने का प्रस्ताव रखा। ’’ आडवाणी जी आप मेरे स्थान पर मेरे बडे भाई भैरोंसिह को पार्टी का प्रत्याशी बना दें’’, बिशन सिंह ने अपनी राय आडवाणी के सामने रखी, आडवाणी को यह सुनकर बडा आश्चर्य हुआ ’’ बिशन सिंह जी मैने आज तक भैंरोंसिंह का नाम नही सुना है, स्थानीय कार्यकर्ता भी उनसे परिचित नही है, यह कैसे सम्भव होगा, बिशन सिंह ने आडवाणी से कहा कि इसकी चिन्ता आप न करें, मेरी लोकप्रियता ही उन्हे पार्टी का दांतारामगढ से पहला पार्टी विधायक बनाये जाने के लिऐ पर्याप्त है, आडवाणी ने इस पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी।
पार्टी का प्रत्याशी बनाये जाने की सूचना स्वयं बिशन सिंह ने अपने बडे भाई भैंरोंसिंह को दी, ’’ दादोभाई थान्है चुनाव लडनो है, पहला आम चुनाव था भैंरोंसिंह भी चुनाव लडने की प्रक्रिया से परिचित नही थे, जब लडने की बात उन्हे सुनाई दी तो उन्होने सोचा छोटे भाई बिशन सिंह की किसी से लडाई हो गई है, ’’ भैंरोंसिंह खडे हुऐ और बिशन सिंह से कहा ’’ चाल कुण से लडणो है, ’’ लडणो कोनी चुनाव लडनो है, चुनाव कांई होवै है, मै कोनी जाणू, बिशन सिंह ने कहा कि अब चुनाव होसी, जनता वोट डालेली और एम.एल.ए. बणसी, मैं काईं भी कोणी जाणू, तू लड, थारो ही नाम दुनिया जाणे है, आखिर भैरोंसिंह पार्टी के प्रत्याषी बने, जनता ने भैरोंसिंह की जगह बिषन सिंह को ही प्रत्याशी समझा, व भैरोंसिंह पहला चुनाव जीते।आगे चलकर विधानसभा में क्या बोले, कैसे बोलें इसका पूरा प्रशिक्षण भी बिशन सिंह ने ही अपने भाई भैरोंसिंह को दिया।
बिशन सिंह शेखावत ने राज्य के सर्वाधिक प्रतिष्ठित कर्मचारी एवं शिक्षक नेता के रूप में अपनी पहचान कायम की, राज्य के सुदूर गांवों में बैठे पटवारी, ग्रामसेवक, षिक्षक व कर्मचारियों में स्व. बिशन सिंह का इतना सम्मान था कि आम बोलचाल में भैरोंसिंह के बारे में वे कहते है कि अपने माडसाहब बिशन सिंह जी का ही बडा भाई है, बिशन सिंह की इस प्रतिष्ठा का लाभ भैरोंसिंह को अपने सम्पूर्ण राजनैतिक जीवन में मिला।
इस तरह अब तक के राज्य के सर्वाधिक लोकप्रिय राजनेता भैरोंसिह शेखावत का राजनैतिक सफर शुरू हुआ, जो राज्य के तीन बार मुख्यमंत्री व देश के उपराष्ट्रपति तक पहुंचा। आज बिशन सिंह शेखावत जैसे भाई जिसने अपने स्थापित राजनैतिक भविष्य को अपने भाई के लिऐ सहर्ष उत्सर्ग कर दिया, का जीवन इस अवसर पर राजनीति मे आकर प्रसिद्धि पाने के लिऐ ललायित हो रहे राजनीतिक परिवारों के सदस्यों को यह उदाहरण निष्चित रूप से एक विशिष्ट मार्गदर्शन दे सकता है।
बिशन सिंह शेखावत आगे चलकर राज्य के सर्वाधिक लोकप्रिय कर्मचारी एवं शिक्षक नेता व ख्यातिनाम पत्रकार के रूप में प्रसिद्ध हुए यहां यह भी उल्लेख करना समीचीन है कि राज्य के 3 बार अपने भाई भैरोंसिंह शेखावत के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी स्व. बिशन सिंह ने अपना जीवन एक अति साधारण व्यक्ति के रूप में ही जीया, कत्थई रंग के कुर्ते एवं धोत्ती में जयपुर की सडकों एवं धूल भरे ग्रामीण अंचल में चलते हुऐ उन्हे कोई भी व्यक्ति इस रूप में पहचान लेता था कि ये तो माड साहब बिशन सिंह जी हैं, अधिकांश समय जयपुर की विभिन्न जगहों में किराये के मकानों व आखिर में शास्त्री नगर के अपने 125 वर्गगज के मकान में अपना जीवन जीया। जिस समय बिशन सिंह शेखावत का देहांत हुआ तो उनकी बैंक की पासबुक में मात्र 357 रू. शेष थे।
Published on:
21 Oct 2023 01:25 pm
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