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जोधपुर

आज भी डिमांड में है 12वीं शताब्दी पुराना बंधेज, जोधपुर में वार्षिक टर्न ओवर करीब 100 करोड़

जोधपुर में इस व्यवसाय का वार्षिक टर्न ओवर करीब 100 करोड़ से अधिक है। शारदीय नवरात्रा से दीपावली के बीच करीब 40 से 50 करोड़ का व्यवसाय होता है। बंधेज विशेषज्ञों का कहना है कि जो क्वालिटी हाथ से निर्मित बंधेज में है वह क्वालिटी मशीनी प्रिन्ट से संभव नहीं है।

जोधपुरJul 26, 2019 / 03:59 pm

Harshwardhan bhati

jodhpur textile industries

आज भी डिमांड में है 12वीं शताब्दी पुराना बंधेज, जोधपुर में वार्षिक टर्न ओवर करीब 100 करोड़

नंदकिशोर सारस्वत/जोधपुर. मशीनीकरण के हाइटेक दौर में उत्कृष्ट बनावट और रंगाई के कारण विश्व भर में अपनी विशिष्ट पहचान कायम कर चुके जोधपुरी बंधेज की मांग लगातार बढ़ती जा रही है। जोधपुर में बनी बंधेज की साडिय़ा, सलवार सूट, ओढ़नियां, चुनरी महिलाओं व युवतियों में सर्वाधिक लोकप्रिय है। जोधपुर में इस व्यवसाय का वार्षिक टर्न ओवर करीब 100 करोड़ से अधिक है। शारदीय नवरात्रा से दीपावली के बीच करीब 40 से 50 करोड़ का व्यवसाय होता है। बंधेज विशेषज्ञों का कहना है कि जो क्वालिटी हाथ से निर्मित बंधेज में है वह क्वालिटी मशीनी प्रिन्ट से संभव नहीं है।
जोधपुर शासकों का मिला संरक्षण
इतिहासविद् डॉ. महेन्द्रसिंह तंवर ‘खेतासर’ के अनुसार बंधेज की रंगाई और बंधाई का कार्य 12 वीं शताब्दी में गुजरात में बाघेला राजाओं के शासनकाल में पल्लवित और पोषित हुआ। गुजरात के बाद जोधपुर के शासकों ने 18वीं शताब्दी में इस कला को संरक्षण प्रदान किया। जोधपुर में बंधेज तैयार करने वाले चड़वा (रंगरेज), चुंदड़ीगर व छीपा परिवार के करीब एक हजार लोग हैं। जयपुर के महाराजा सवाईसिंह ने भी सन 1770 में विशेष रंगखाना स्थापित कर बंधेज कला को प्रोत्साहन दिया।
हर खुशी के मौके पर बंधेज
त्योहार-उत्सव व खुशियों के मौकों पर महिलाओं की ओर से केसरिया, नीले और लाल रंग की साडिय़ा, दुपट्टे पहनने का प्रचलन है। पुरुष अलग-अलग रंग के बंधेज साफे विवाह और खुशी के मौके पर पहनते हैं। जोधपुर में निर्मित बंधेज की अन्य किस्म जैसे पोमचा, पीलिया, पतंगभात, पचरंगा, सतरंगा, लहरिया, मोठड़ा, चूंदड़ी भी काफी लोकप्रिय है। फैशन के दौर में बंधेज का स्कार्फ का प्रचलन भी बढ़ा है।
चाहिए पैनी नजर व मेहनत
कारीगर को अपनी पैनी नजर से कपड़े के हिस्सों को बारीकी से धागों से बांधकर अलग-अलग आकृतियां बनानी पड़ती है। फिर कपड़ों की रंगाई तथा डाई होने पर गोलाकार में बंधे धागों को तोडकऱ पूरे कपड़े को चरक के बाद खोलने पर बंधेज बनता है। बारीक बंधेज तैयार करने में काफी समय और मेहनत लगती है।
बंधेज कला को बचाने प्रशिक्षण संस्थान की जरूरत
मशीनी प्रिंट की प्रतिस्पद्र्धा के कारण अब केवल ग्रामीण क्षेत्रों में ही बंधेज के कारीगर नाममात्र ही बचे है। यदि इस कला को बचाना है तो सरकार को प्रशिक्षण संस्थान खोलना चाहिए। सूरत आदि शहरों में मशीनों से तैयार बंधेज के कपड़ों का प्रयोग अधिक होने से परम्परागत शैली में बनने वाले परिधान बंधेज का अस्तित्व खतरे में है।
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