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नवरात्र विशेष: चील के रूप में रहती हैं यहां मां दुर्गा, पाकिस्तान के सैकड़ों बमों को आंचल में छुपा की थी रक्षा

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Ma Chamunda temple, Jodhpur

Ma Chamunda temple, Jodhpur

जोधपुर।

गढ़ जोधाणे ऊपरे, बैठी पंख पसार,

अम्बा थ्हारो आसरो, तूं हीज है रखवार....

चावण्ड थ्हारी गोद में, खेल रयो जोधाण,

तूं हीज निंगे राखजै, थ्हारा टाबर जाण....

आद्यशक्ति मां चामुण्डा की स्तुति में कहा गया है कि जोधपुर के किले पर पंख फैलाने वाली माता तू ही हमारी रक्षक है। मारवाड़ के राठौड़ वंशज श्येन (चील) पक्षी को मां दुर्गा का दूसरा स्वरूप मानते हैं। यही कारण है कि स्वतंत्रता से पूर्व मारवाड़ के राजकीय झंडे पर भी मां दुर्गा स्वरूप चील का चिह्न ही अंकित रहा है।

मेहरानगढ़ दुर्ग के निर्माता जोधपुर के संस्थापक राव जोधा का राज्य छिन जाने के 15 साल बाद मां दुर्गा ने स्वप्न में आकर उन्हें चील के रूप में दर्शन दिए और सफलता का आशीर्वाद प्रदान किया। राव जोधा ने स्वप्न में मिले निदेर्शों का अनुसरण किया और देखते ही देखते उनका राज्य पुन: कायम हो गया। इसके बाद मान्यता चल पड़ी कि दुर्ग में दुर्गा मां चील के रूप में विराजित हैं और मारवाड़ की ओर आने वाली हर मुसीबत से वे रक्षा करेंगी।

दुर्ग निर्माण के बाद से ही चीलों को चुग्गा

मेहरानगढ़ दुर्ग निर्माण के समय से ही मां दुर्गा रूप में चीलों को चुग्गा देने की परम्परा शुरू की, जो सदियों बाद भी उनके वंशज नियमित रूप से जारी रखे हुए हैं। कहा जाता है कि राव जोधा को माता ने आशीवाज़्द में कहा था कि जब तक मेहरानगढ़ दुर्ग पर चीलें मंडराती रहेंगी तब तक दुगज़् पर किसी भी प्रकार की कोई विपत्ति नहीं आएगी।

पाकिस्तान ने गिराए थे बम, नहीं हुई जनहानि
मेहरानगढ़ दुर्ग में स्थित चामुण्डा मंदिर की मूर्ति को जोधपुर के संस्थापक राव जोधा ने 558 साल पहले विक्रम संवत 1517 में मंडोर से लाकर स्थापित किया था। चामुण्डा मूलत: परिहारों की कुलदेवी हैं। राव जोधा ने जब मंडोर छोड़ा तब चामुण्डा को अपनी इष्टदेवी के रूप में स्वीकार किया था। सूर्यनगरीवासियों में चामुण्डा माता के प्रति अटूट आस्था यह भी है कि वर्ष 1965 और 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान जोधपुर किले पर गिरे सैकड़ों बमों को मां चामुण्डा ने जैसे अपने आंचल का कवच पहना दिया था। जोधपुर के विभिन्न जगहों पर बम गिराए गए, लेकिन पुरानी जेल व सरदार क्लब का कुछ हिस्सा ही क्षतिग्रस्त हुआ था। कोई जनहानि नहीं हुई थी। जोधपुर शहरवासी इसे आज भी मां चामुण्डा की कृपा ही मानते हैं।


अडिग रही मूर्ति
किले में 9 अगस्त 1857 को गोपाल पोल के पास बारूद के ढेर पर बिजली गिरने के कारण चामुण्डा मंदिर कण-कण होकर उड़ गया, लेकिन मूर्ति अडिग रही। तबाही इतनी भीषण थी कि इसमें 300 से अधिक लोग मारे गए थे। मुख्य मंदिर का विधिवत निर्माण महाराजा अजीतसिंह ने करवाया था। मंदिर में मां लक्ष्मी, महासरस्वती व बैछराजजी की मूर्तियां स्थापित हैं।

बदल गईं कई परंपराएं
आठ साल पूर्व 30 सितम्बर 2008 को मेहरानगढ़ में हुई दुखान्तिका के बाद मंदिर में कई परम्पराएं बदल चुकी हैं। दुखान्तिका में 216 लोग काल कवलित हुए थे। सलीमकोट मैदान में लगने वाला नवरात्र मेला व मंदिर की परिक्रमा के साथ शारदीय व चैत्रीय नवरात्र की प्रतिपदा को महिषासुर के प्रतीक भैंसे की बलि देने की परम्परा भी बंद हो चुकी है।

इसका प्रमुख कारण रियासतों के भारत गणराज्य में विलय तथा पशु क्रूरता अधिनियम लागू होना है। दोनों ही नवरात्र में पहले सुबह 5 बजे से रात 10 बजे तक मां चामुण्डा मंदिर दर्शनार्थियों के लिए खुला रहता था, लेकिन आठ साल से सुबह 7 से शाम 5 बजे तक ही दर्शन की इजाजत है।


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