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चील को मां दुर्गा का स्वरूप मानते हैं मारवाड़ के राठौड़ वंशज

  -शुभ माना जाता है मेहरानगढ़ पर चीलों का मंडराना  

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चील को मां दुर्गा का स्वरूप मानते हैं मारवाड़ के राठौड़ वंशज

चील को मां दुर्गा का स्वरूप मानते हैं मारवाड़ के राठौड़ वंशज

नंदकिशोर सारस्वत

जोधपुर. मारवाड़ के राठौड़ वशंज श्येन (चील) को भी मां चामुंडा का दूसरा स्वरूप मानते हैं। राठौड़ों के रियासतकालीन शासकीय झंडे पर भी चील का चिह्न अंकित है। ऐतिहासिक मेहरानगढ़ स्थित मां चामुंडा के मंदिर में देवी की आराधना के वक्त यह स्तुति भी की जाती है कि 'गढ़ जोधाणे ऊपरै, बैठी पंख पसार, अम्बा थ्हारो आसरो, तूं इज है रखवार....चावण्ड थ्हारी गोद मांय, खेल रह्यो जोधाण, तूं इज निंगे राखजै, थ्हारा टाबर जाण....।

मां चामुंडा के मंदिर में सेवा-आराधना में जुटे पंडितों का कहना है कि मां चामुण्डा की प्रतीक चीलों का किले के ऊपर दिखना बहुत मंगलमय माना गया है। इसके पीछे किवदंती है कि जोधपुर के संस्थापक राव जोधा का राज्य छिन जाने पर मां दुर्गा ने स्वप्न में आकर उन्हें चील के रूप में दर्शन दिए और कहा कि अमुक दिशा में प्रस्थान करके सैन्य बल जुटाने से पुन: राजसत्ता प्राप्त हो सकेगी और ठीक वैसा ही हुआ। तब से मेहरानगढ़ के आसपास चीलों का दिखना बहुत शुभ माना जाता है ।


563 सालों से डाल रहे हैं चुग्गा
इतिहासविद एमएस तंवर के अनुसार करीब 563 साल पहले मेहरानगढ़ दुर्ग निर्माण के समय शुरू हुई चीलों को चुग्गा देने की परम्परा आज भी जारी है। इन साढे पांच सौ सालों में जोधपुर के कई शासक बदलते रहे लेकिन मेहरानगढ़ के प_े पर चीलों को चुग्गा डालने की व्यवस्था नहीं बदली।

ध्वजा के दर्शन कर खोलते हैं उपवास

किवदंती है कि राव जोधा को मां ने आशीर्वाद देते हुए कहा था कि जब तक मेहरानगढ़ दुर्ग पर चीलें मंडराती रहेंगी, तब तक दुर्ग पर कोई विपत्ति नहीं आएगी। मेहरानगढ़ सदियों से पक्षियों का भी आश्रयस्थल रहा है। परकोटे के भीतरी शहर के कई श्रद्धालु आज भी नवरात्र में मंदिर शिखर पर लगी ध्वजा व ज्योत के दर्शन करने के बाद ही उपवास का पारणा करते हैं।