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आधुनिकता की चकाचौंध में देव उठनी एकादशी का स्वरूप बदला

गुढ़ाचन्द्रजी . बदलते परिवेश और आधुनिकता की चकाचौंध में (In the glare of modernity, the appearance of Dev Ekadashi changed) माढ़ क्षेत्र में दो दशक पहले देवउठनी एकादशी पर जलाए जाने वाले घेघले लुप्त हो गए हंै। ऐसे में धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति, त्यौहार आदि पौराणिक परम्पराओं का स्वरूप धुंधलाता जा रहा है। हालांकि इस दिन की कुछ परम्परा अभी बरकरार भी हैं।

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करौली

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Vinod Sharma

Nov 07, 2019

आधुनिकता की चकाचौंध में देव उठनी एकादशी का स्वरूप बदला

आधुनिकता की चकाचौंध में देव उठनी एकादशी का स्वरूप बदला

गुढ़ाचन्द्रजी . बदलते परिवेश और आधुनिकता की चकाचौंध में (In the glare of modernity, the appearance of Dev Ekadashi changed) माढ़ क्षेत्र में दो दशक पहले देवउठनी एकादशी पर जलाए जाने वाले घेघले लुप्त हो गए हंै। ऐसे में धीरे-धीरे भारतीय संस्कृति, त्यौहार आदि पौराणिक परम्पराओं का स्वरूप धुंधलाता जा रहा है। हालांकि इस दिन की कुछ परम्परा अभी बरकरार भी हैं।
कस्बे सहित ढहरिया, दलपुरा, तिमावा, गढ़मोरा, तालचिड़ा, माचड़ी, गांवड़ी, रायसना आदि गांवों में दो दशक पहले तक देवउठनी एकादशी पर रात के समय जलाए जाने वाले घेघले अब नजर नहीं आते है। घेघले के कारण इस इलाके के गांवों में देवउठनी एकादशी को घेघली ग्यारस के रूप में जाना जाता है। इस मौके पर बच्चे व युवाओं की टोली मशालों के रूप में घेघलों को हाथ में लेकर गीत गाती गांवों के चारों और चक्कर लगाती थी। अब ये अतीत की बातें हो गई है। इसके पीछे देवताओं के जागने की खुशी प्रदर्शित करने और बुरी आत्माओं को गांवों से बाहर खदेडऩे की मान्यता थी।


गांव के बच्चे व युवा लकड़ी के ऊपर कपड़े को लसेट कर घेघले का रूप बनाते थे। इस घेघले को तेल से भिगोकर शाम को घरों को रोशन किया जाता था। साथ ही गांव में इन मशालों को घुमाया जाता। इससे गांव के हर हिस्से से अंधेरा दूर होता। पूरा गांव रोशनी में नजर आता। इस परम्परा में दीपावली जैसी रोशनी और खुशी नजर आती। आतिशबाजी भी की जाती। इसी प्रकार पहाड़ी से सटे गांवों के लोग भी पहाड़ी पर चढ़कर कड़वी आदि जलाकर रोशनी करते थे। आसपास के गांवों के लोग भी अपनी मकानों की छतों पर चढ़कर रोशनी देखते थे। इसके बाद सभी समाजों के लोग गांव में एक स्थान पर इकट्ठे होकर आपस में एक दूसरे को बधाई देते थे। इससे सामाजिक सौहाद्र्र झलकता था।


हालांकि इस दिन औरतें घरों में व अपने घर के बाहर दीपक जलाकर मांगलिक गीत गाती है तथा मिट्टी के देवी-देवता बनाकर उनकी पूजा कर घर में सुख-समृद्घि की कामना करती हैं। देवों को जगाने की परम्परा के तहत महिलाएं शाम को अपने घर में तथा इसके बाद गांव में एक जगह एकत्रित होकर मांगलिक गीत गाती है। दीप जलाती हैं और गाजर, मूली, सेंगरी, पुष्प, सिंघाड़े आदि फल एक-दूसरी को वितरित करती है। आधुनिकता के चलते ये सब परम्पराएं गौण होने लगी हैं। बदलते परिवेश में लोग अब सिर्फ अपने घरों में दीपक जलाकर देवों को जगाने की रस्म निभाते हैं ।