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सरदार सरोवर बांध के डूब प्रभावितों की दर्द भरी दास्तां…जिसे भुला पाना संभव नहीं…एक विश्लेषण…

 धार जिले के कोठड़ा गांव को ही लें....कोठड़ा के 200 परिवारों के घर का प्रत्येक सदस्य एक-एक दिन इस दर्द में गुजार रहा है कि कल क्या होगा? बच्चों को क्या खिलाएंगे? परिवार कैसे चलाएंगे? डूब प्रभावितों के मुआवजा वितरण में भ्रष्टाचार का इससे बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता।

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Editorial Khandwa

Aug 02, 2017

 sardar sarovar dam barwani

sardar sarovar dam barwani

पत्रिका/ टिप्पणी... पुष्पेन्द्र साहू
Khandwa. जीवन में कुछ घटनाएं इतिहास के पन्नों पर /अपनी अमिट छाप छोड़ जाती हैं जिनकी भरपाई करना नामुमकिन ही होता है। विकास की पटरी पर सरदार सरोबर बांध के डूब का दंश प्रभावितों की जिंदगी में उस काले पन्ने की तरह है जिस पर कभी कुछ उकेरा नहीं जा सकता। डूब में आ रहे कुछ परिवारों की जिंदगी नाव पर सवार उस मांझी की तरह बन गई है जिसे मंजिल का पता नहीं है। इस सबके बीच मुआवजा वितरण में भारी विसंगतियां सामने आईं हैं। एक तो बसी-बसाई गृहस्थी उजडऩे का दर्द, ऊपर से मुआवजे के रूप में ऊंट के मुंह में जीरा वाली स्थिति से यह नासूर बनता जा रहा है।
बांध के डूब की जद में बड़वानी, धार, खरगोन और आलीराजपुर जिले के 178 गांव आ रहे हैं। इनमें कुछ गांवों को छोड़ दिया जाए तो ज्यादातर गांवों में मुआवजा वितरण में गंभीर लापरवाही बरती गई है। वहीं भ्रष्टाचार के ऐसे मामले सामने आएं है कि पूरे के पूरे गांव को ही मुआवजा नहीं दिया गया। धार जिले के कोठड़ा गांव को ही लें....कोठड़ा के 200 परिवारों के घर का प्रत्येक सदस्य एक-एक दिन इस दर्द में गुजार रहा है कि कल क्या होगा? बच्चों को क्या खिलाएंगे? परिवार कैसे चलाएंगे? डूब प्रभावितों के मुआवजा वितरण में भ्रष्टाचार का इससे बड़ा उदाहरण नहीं हो सकता। सबसे बड़ी बात वर्ष 2001 में सर्वे के दौरान अफसरों ने इस गांव को ही डूब प्रभावित नहीं माना। आज स्थिति ये है कि परिवारों के सामने दो जून की रोटी और छत की तलाश है। यहां बड़ा सवाल ये है कि इस गंभीर लापरवाही के बाद भी न तो जनप्रतिनिधि आगे आए और न ही वरिष्ठ अफसरों ने कोई सुध ली? जो परिवार आज हंसते-खेलते हुए जीवन गुजार रहे हैं और कल उनके लिए छत तक नसीब न होगी, इसका जिम्मेदार कौन? वहीं बड़वानी जिले के 46 डूब प्रभावित गांवों में 1300 परिवार ऐसे हैं जिनके घर डूबने की स्थिति में उन्हें रहने के लिए छत तक नहीं है और न ही टीनशेड में व्यवस्था की गई है? इस सबके बाद भी इनके दर्द को न तो अफसर मानने को तैयार हैं और न सरकार। यदि डूब प्रभावितों ने आंदोलन की राह पड़की है तो इसके पीछे उनका दर्द है, पीड़ा है और छलावा है। इनकी समस्या और पीड़ा जब प्रशासनिक अफसर और सरकार नहीं समझेगी तो कौन समझेगा? गांव खाली करने की अंतिम घडिय़ां चल रहीं हैं और इनकी फिक्र न तो प्रशासन कर रहा है और न ही सरकार। लापरवाही की हद यही नहीं रुकती... सरकार की घोषणा के अनुसार मकान खाली करने वाले परिवारों को ८० हजार और घर बनाने के लिए १.४० लाख रुपए मिलना हैं। इस घोषणा पर भरोसा करके कुछ लोगों ने पुराने मकान तोड़ लिए, लेकिन उन्हें आज तक रुपए ही नहीं मिले हैं। अब स्थिति ये है कि बारिश में सिर ढंकने के लिए न छत है और न पैसा जिससे कि नया घर बसा सकें। मजबूरन इन्हें किराए के मकान या रिश्तेदारों के यहां शरण लेना पड़ रही है।
जबकि होना ये चाहिए कि सरकार पहले डूब प्रभावितों के लिए संपूर्ण पुनर्वास की व्यवस्था करे। उन्हें मूलभूत सुविधाएं घर, पानी, शिक्षा और रोजगार की व्यवस्था सुनिश्चित करे। जमीन के बदले जमीन और घर के बदले घर के अपने वादे को पूरा किया जाए। मुआवजे से वंचित परिवारों को चिंह्नित कर नियमानुसार राशि दी जाए और उन्हें सुखद भविष्य के प्रति आश्वत किया जाए, ताकि उनके दर्द को कुछ हद तक कम किया जा सके। डूब का दर्द सरकार को समझना होगा। ताकि इंदिरा सागर बांध के दौरान हरसूद सहित अन्य गांवों के विस्थापन में जो लापरवाही और विसंगतियां सामने आईं थी उन्हें दूर किया जा सके। साथ ही सभी के साथ उचित न्याय हो। ये सरकार का दायित्व है?

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