scriptJadavpur University : history of violence, VC was murdered | जहां राज्यपाल धनखड़ का घेराव हुआ उसी जेयू में हो चुकी है कुलपति की हत्या | Patrika News

जहां राज्यपाल धनखड़ का घेराव हुआ उसी जेयू में हो चुकी है कुलपति की हत्या

locationकोलकाताPublished: Dec 23, 2019 06:38:05 pm

Submitted by:

Paritosh Dube

जादवपुर विश्वविद्यालय (Jadavpur University) एक बार फिर चर्चा में है। इस बार यहां कुलाधिपति व राज्यपाल जगदीप धनखड़ (Jagdeep Dhankhar) का घेराव हुआ है। रक्तरंजित छात्र आंदोलन के गवाह इस विश्वविद्यालय में नक्सलवाद के अभ्युदय के दौर में गांधीवादी कुलपति की हत्या भी हो चुकी है।

जहां राज्यपाल धनखड़ का घेराव हुआ उसी जेयू में हो चुकी है कुलपति की हत्या
गांधीवादी प्रोफेसर गोपाल चंद्र सेन
कोलकाता। जादवपुर विश्वविद्यालय की बैठक में शामिल होने के लिए गए राज्यपाल व कुलाधिपति जगदीप धनखड़ का सोमवार को विश्वविद्यालय में घेराव हुआ। वहां छात्रों ने नारेबाजी की उन्हें काले झंडे दिखाए गए। आइए आपको विवि से जुड़ी कुछ ऐसी बातें बताएं जो शायद आप नहीं जानते होंगे। वो बीती शताब्दी के सातवें दशक के अंतिम साल थे। पश्चिम बंगाल में रक्तरंजित राजनीति का दौर शुरू हो चुका था। सशस्त्र आंदोलन के सहारे सत्ता परिवर्तन का नारा देने वाले नक्सली गांव खेतों से निकलकर महानगर कोलकाता के उच्च शैक्षणिक संस्थानों तक पहुंच चुके थे। किताबें रखने वाले बैग में पिस्तौल बम रखे जाते थे। शाम का अंधेरा होते ही महानगर के कॉलेज पाड़ा की सडक़ों पर पुलिस के बूटों की आवाज और बमबाजी सुनाई देने लगती थी। कॉलेज पाड़ा से दूर महानगर के जादवपुर विश्वविद्यालय की कमान उस समय गांधीवादी प्रोफेसर गोपाल चंद्र सेन के पास थी। वे विश्वविद्यालय के कुलपति थे। विश्वविद्यालय में नक्सली, माओवादी, चरम वामपंथी सक्रिय थे। जो विश्वविद्यालय की इंजीनियरिंग विभाग की परीक्षाएं नहीं होने देने पर आमादा थे। कुलपति गोपाल चंद्र सेन ने परीक्षाएं कराने का बीड़ा उठाया। उनका मानना था कि जो छात्र परीक्षाएं देना चाहते हैं उनके लिए परीक्षा आयोजित करनी ही होगी। यह उनका दायित्व है। परीक्षाएं हुईं। उनके नतीजे भी तैयार किए गए। पूजा की छुट्टियां आने वाली थीं सो कुलपति निवास से ही प्रोविजनल सर्टिफिकेट वितरण किया जाने लगा। यह सब विश्वविद्यालय में चरम वामपंथियों को कहां पसंद आने वाला था। बातें शुरू हुई तो कुलपति तक खबर भी आई कि उनकी जान को खतरा है। लेकिन गांधी जी के साथ 1930 के दशक से जुड़े गोपाल बाबू ने किसी तरह की सुरक्षा व्यवस्था लेने से इंकार कर दिया। यहां तक की वे कुलपति को मिलने वाली सहुूलियत भी नहीं लेते थे, वाहन का प्रयोग नहीं करते थे। आवास से कार्यालय पैदल आना जाना करते थे।
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