
कोटा . आज तो लोग सिर्फ धुलंडी के दिन ही रंगों से सरोबार नजर आते हैं। एक-दूसरे के रंग, गुलाल लगाते थे। इसके बाद अगर कोई रंग गुलाल लगा हुआ नजर आता है तो अजीब सा लगता है। लेकिन, कोटा रियासत के इतिहास को टटोले तो एक सदी पूर्व, देश की आजादी से पहले तक होलिका दहन से होली पर्व शुरुआत होती थी और पूरे 9 दिन तक होली की धमाल रहता था। हर दिन महाराव व जनता अलग-अलग रंग, कलेवर, परम्परा से साथ होली पर्व मनाते थे।
किसी दिन धूल की होली, तो किसी दिन गुलाल, रंग की होली, किसी दिन प्रजा की होली तो किसी दिन राणी, महाराणी, बड़ारण की होली होती थी। रियासतकाल के होली उत्सव को लोग साल भर याद रखते थे। होली के इस उत्सव के कारण ही महाराव उम्मेद सिंह की ख्याति उस जमाने में अन्य रियासतों तक फैली।
पहला दिन: इतिहासकार डॉ. जगतनारायण श्रीवास्तव बताते हैं कि फागुन सुदी पूर्णिमा से होली पर्व शुरू होता था। जो नौ दिन तक चलता था। शाम 4 बजे उम्मेद भवन से जनानी सवारी शुरू होती थी। जिसमें राणीजी, महाराज कुमार बग्गी में सवार होकर रवाना होते थे। रास्ता में लाल कोठी से महाराणी जाड़ेची जी सवारी में शामिल होती थी। शाम 7 बजे गढ़ के चौक में होलिका दहन होता था। इस दौरान विधुरों द्वारा मनोरंजन के लिए हाड़ौती के लोकगीत गाए जाते थे।
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दूसरा दिन: होलिका दहन की राख से खेलते थे धुलंडी होलिका दहन के बाद दूसरे दिन लोग राख से होली खेलते थे। जो होलिका दहन स्थल से राख लाते थे। अधिकांश लोग धूल से होली खेलते थे। इससे ही धुलंडी नाम पड़ा है। उस जमाने में गांवों में कीचड़, धूल, गोबर आदि से भी धुलंडी खेली जाती थी। धुलंडी के दिन रंग का कहीं भी उपयोग नहीं होता था।
तीसरे दिन : होली की राख से होली खेलने के बाद तीसरे दिन महाराव किराना भंडार में दवात पूजन करते थे। जिसमें बड़ी संख्या में प्रजा भी शामिल होती थी।
चौथा दिन: चौथे दिन नावड़ा की होली खेली जाती थी।
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पांचवा दिन: पांचवे दिन हाथियों की होली खेली जाती थी। जिसमें महाराव हाथियों पर सवार होकर लोगों से होली खेलने निकलते थे। जिसमें प्राकृतिक रंगों को उपयोग होता था।
छठा दिन: छठे दिन पड़त रहती थी।
्सातवां दिन : सातवें दिन न्हाण खेला जाता था। जिसमें सुबह शाम दरीखाना होता था। सुबह के दरीखाने में महाराव नई पोशाक पहन कर सिंहासन पर बैठते थे। नर्तकियां नृत्य करती थी। महाराव दरीखाने में गुलाल, अबीर का गोटा फेंकते थे। इसके बाद दरीखाने में उपस्थित सभी लोग आपस में रंग, गुलाल लगाकर होली खेलते थे। दरीखाने की होली के बाद महाराव राजमहल में पहुंच कर राणीजी, महाराणी जी, बड़ारण के साथ पचरंगी गुलाल से होली खेलते थे।
इसी दिन गढ़ पैलेस में हाथियों की पोल के चबूतरे पर शाम का दरी खाना लगता था, जिसमें महाराव के सामने अखाड़े में जेठियों के पहलवानों की कुश्ती होती थी। पहलवानों द्वारा करतब दिखाए जाते थे। नगाडख़ाना के दरवाजे के बाहर झंडा गाड़ा जाता था। जिसे उखाडऩे के लिए अनुसूचित जाति वर्ग के युवाओं द्वारा प्रयास किया जाता था। इसी वर्ग की महिलाएं कोड़े मारकर युवकों भगाने का प्रयास करती थी। युवक कोड़े खाकर भी झंडे को उखाड़ लाते थे। जिन्हें महाराव द्वारा गुड़ की भेली, नकदी टका, लाल-सफेद कपड़े के थान का पुरस्कार दिया जाता था।
आठवां दिन: आठवें दिन को पड़त रहती थी।
नवें दिन: नवें दिन दरीखाने में कचहरी व फौज के हलकारों के बीच अखाड़ा होता था। इसके साथ ही होली पर्व का समापन होता था।
Published on:
02 Mar 2018 10:13 am
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