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ईद विशेष…इस्लाम तरीका ए जिंदगी है

रमजान का पैगाम रोजेदारों के नाम  

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कोटा

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Zuber Khan

Jun 16, 2018

eid

ईद विशेष...इस्लाम तरीका ए जिंदगी है

अनवार अहमद, शहर काजी

इस्लाम रुल्स एवं ट्रेडिशन का मजहब नहीं है, यह तरीका ए जिंदगी है। यह एक पैगाम है जो किसी एक कौम, मुल्क, खास जमाने के लिए नहीं, सभी इंसानों के लिए है। इस्लाम एक एेसी जिंदगी गुजारने का तरीका बताता है। या एेसे कह सकते हैं कि जिसमें 'राइट टू गॉड', 'राइट टू ह्यूमिनिटी' व 'राइट टू सेल्फ' की तालीम देता है।


'राइट टू गॉड' से तात्पर्य है कि जिसने हमें, जमीन, आसमां व हर चीज को पैदा किया, वहीं जिंदगी व मौत को देने वाला है, गुमराही से बचाने वाला है। वही एक रोज सभी का हिसाब लेने वाला है। खुदा की किताब कुरआन शरीफ में फरमाया है कि 'वही है जिसने मौत व जिंदगी को पैदा किया। देखते हैं तुम कैसे अच्छा अमल करके आते हो। अर्थात यह जिंदगी एक इम्तिहान है, और जिंदगी से मौत के बीच का समय एग्जामिनिशन पीरियड है। हमारी जिंदगी में हर रोज हमारा इम्तिहान हो रहा है। हम कैसे अच्छे बन सकते हैं। जब तक नतीजे की अच्छाई-बुराई का अहसास नहीं हो, उस वक्त तक आदमी मेहनत नहीं करता। लिहाजा यह अहसास व यकीन इस्लाम पैदा करता है कि एक रोज तुम्हारी जिंदगी का नतीजा निकलने वाला है। 'जैसा करोगे वैसा भरोगे।

राइट टू ह्यूमिनिटी

खुदा ने जिंदगी को एक एेसे सांचे में ढाला कि एक दूसरे की मदद के बिना जिंदगी खुशनुमा नहीं बन सकती। इसलिए पैगम्बर ए इस्लाम ने कहा कि खुदा उससे प्यार करता है, जो उसके बंदों को प्यार करता है। इसलिए कोई किसी का हक न मारे, ज्यादती, घोखेबाजी, जालसाजी ने करे। यह तब ही संभव है, जबकि अनदेखी ताकत का डर हर वक्त जेहन में महसूस करे। इस डर को कायम रखने के लिए पांच वक्त की नमाज फर्ज की। ताकि बुलावे के जरिए (अजान) मुकाम मस्जिद पर तमाम कामों को छोड़कर एकत्रित हो सकें। पाक साफ होकर उसके आगे झुक जाएं। दिन में पांच बार अनदेखी ताकत के डर का बिठाना जरूरी है, ताकि एक इंसान सही मायने में अशरफुल मखलुकात 'बेस्ट अमंग ऑफ द क्रिएशनÓ बन जाए। उसका वजूद दूसरे की भलाई का जरिया बन जाए। इंसान इंसान के हक को काबिल करने के काबिल बन जाए।

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इंसान के हक को अदा करने व समझने के लिए जकात को लाजिम करार दिया, ताकि इंसान अपने आप को दौलत का मालिक न समझ बैठे। वह समझे कि यह अमानत है, जो उसे दी गई है। इसका शुक्र इस तरह से अदा करे कि अत्यंत गरीब लोगों का मददगार बन सके। इसी तरह रमजान और रोजा फर्ज किया गया। इसकी दो सूरते हैं- एक रुहानी, दूसरी जिस्मानी। रुहानी का अर्थ वह इबादत से अपने आप को एेसे सांचे में ढाल ले कि उसका मन पवित्र हो जाए। जिस्मानी यह कि सुबह से शाम तक खाने पीने समेत अन्य परहेज करे।

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यह मालदार आदमी को भी भूख प्यास का अहसास करवाकर मोहताजों की गरीबी का अहसास कर सके। रोजा इंसानी जिस्म की दवा भी है। इसमें सब्र व संतुलित आहार से जिस्म तरोताजा महसूस करने लगता है।

गरीबों का हक न मारा जाए, इसके लिए हर इंसान पर फितरा देना लाजिम किया गया है। ताकि गरीब भी ईद की खुशियों में शरीक हो सके। ईद की खुशी मनाने का हक ईदुल फितर हैं। यह खुशी ढोलताशे व शोरशराबे से नहीं, बल्कि खुले मैदान में साफ सुथरे कपड़े पहन कर मनाएं और खुदा को एक माह के प्रशिक्षण का शुक्र अदा करें। उसने हमे तौफिक दी कि एक माह के इस रोजे की तरबियत को पृरा किया। फिर एक दूसरे को गले मिलकर ईद की मुबारकबाद दे।

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राइट टू सेल्फ

इंसान को अपने जिस्म की फिक्र भी करनी है। लिहाजा उसे रोजा नमाज इस तरह से फर्ज किए हैं कि नमाज खड़े होकर अदा नहीं कर सकते हैं तो बैठकर, बैठकर भी संभव नहीं तो लेटकर पढ़े। रोजे में रोगी को छूट दी, लेकिन उस पर लाजिम किया गया कि गरीब की मदद करे। इस तरह इस्लाम एलान है कि खुदा ने इस दिन को तुम्हारे लिए मुकम्मल किया है। ताकि तुम दुनिया में रहकर हुकूक अल्लाह, हुकूक अल अबाद, हुकूक उस नफ्स की पूरी अदायगी कर इंसान इंसान बन सके।

जैसा कि शहर काजी ने हेमंत शर्मा को बताया।