
दशहरा मेले में लाठियां तैयार करती युवती।
कोटा . कहते हैं कुंदन तपकर ही सोना बनता है। सच है, लेकिन सिर्फ कुंदन ही नहीं, किसी बूढ़े का सहारा, पुलिस कर्मियों का डंडा भी तपकर बनती है। बात गले नहीं उतरती हो तो राष्ट्रीय दशहरे मेले में आकर देख सकते हैं।
यहां सूर्ख आग के बीच लंबी लंबी लाठियों को देख लगेगा कि कहीं ये जलकर खाक नहीं हो जाए, लेकिन यकीं कीजिए ये लाठियां खाक नहीं होंगी। यह तो लाठियों को संवारने की कला है। मेले दशहरे में करीब विभिन्न स्थानों से करीब दर्जनभर लाठियों के व्यापारी आए हैं। इन्हीं में से पदमनाथ, संजय, उमरावमल व अन्य दुकानदार बताते है कि लाठियों को तैयार करने का विशेष तरीका होता है। इसके बाद ही लकड़ी लाठी के रूप में निखर कर सामने आती है।
चूड़ीवाली लाठी की डिमांड
लाठियां बनाने के लिए भोपाल, औशंगाबाद, इटारसी, भूतनी बरखेड़ा, समेत अन्य जगहों से बांस आते हैं। भागीरथ नाथ के अनुसार बांसी, गोन्दया, बांस, बंबूबांस अलग अलग तरह के बांस होते हैं। इनसे तैयार लाठियों में से चूड़ी उतार लाठी की बाजार में ज्यादा डिमंाड होती है। इसमें पास पास गांठें होती हैं।
राधिका बनी परिवार की लाठी
भागीरथ नाथ की बेटी राधिका भी लाठियों को संवारने के हुनर में पिता से उन्नीस नहीं है। १६ साल की राधिका ८ सालों से लाठी गढऩे के पारिवारिक व्यवस्था में माता पिता का हाथ बंटा रही है। राधिका बताती है कि एक बार माता पिता बीमार हो गए। भैया अकेले पड़ गए तो परिवार की मदद को वह भी लाठियां तैयार करने में जुट गई। धीरे-धीरे कला में निपुण हो गई।
यूं करते हैं तैयार
विक्रेताओं के अनुसार लाठियां बांस से तैयार होती है। इन्हें जंगलों से मंगवाया जाता है तो ये टेडी-मेड़ी होती है। इन बांसों को आवश्यकतानुसार काटकर आग में तपाते हैं, इससे इनमें लचीलापन आ जाता है। इसके बाद बांस की गांठों को आकार देते हैं। इन लाठियों में कुछ विशेष डिजाइन में आग में तपाकर ही डालते हैं। मुलायम रखने के लिए लाठी को २५ से ३० ग्राम तेल पिलाया जाता है। लाठी को संवारने के लिए इन पर तार गूंथे जाते हैं और डिजाइन के अनुसार चद्दर की पत्तियां लगाई जाती है। करीब एक घंटे में एक लाठी तैयार होती है।
वर्ष भर रहता इंतजार
आमतौर पर बाजारों में लाठियां नहीं मिलती, इसके चलते लोगों को दशहरे का इंतजार होता है। कई लोग शौकिया तौर पर भी लाठी रखना पसंद करते हैं। ग्रामीण में सुरक्षा, खेती के उद्देश्य से लोग लाठियां खरीदते हैं। विक्रेताओं का मानना है कि इस बार ग्राहकी थोड़ी कमजोर है। दुकानदार बताते हैं कि यह मेला अनूठा है। भागीरथ व उमरावमल बताते हैं कि वे करीब ४० बरसों से आ रहे हैं। जब लाठी अठन्नी में बिका करती थी। आज इसकी कीमत १० से १०० रुपए तक हो गई है।
Published on:
15 Oct 2017 11:44 pm
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