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इतिहास गवाह है…राजस्थान की राजनीति में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है..

...जो इन दिनों प्रदेश की राजनीति में खासा चर्चा का विषय बना हुआ है।    

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इतिहास गवाह है...राजस्थान की राजनीति में ऐसा पहली बार नहीं हुआ है..

पत्रिका डिजिटल डेस्क. मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को सत्ता संभाले अभी ज्यादा दिन नहीं हुए है लेकिन वे अभी से एक अजीब चुनौती का सामना कर रहें हैं। सीएम पद को लेकर चली मशक्कत, मंत्रिमंडल के गठन और अब विभागों के बंटवारे तक। आरोप है कि सबकुछ दिल्ली में तय हो रहा है। विपक्ष ने तो मुख्यमंत्री को बेबेस और लाचार करार दे ही दिया है वहीं दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को 'सुपर सीएम' की संज्ञा दी गई है जो इन दिनों प्रदेश की राजनीति में खासा चर्चा का विषय बना हुआ है।

तो क्या पहली बार ऐसा हो रहा है...
यह सच है कि मंत्रिमंडल के गठन और उनके विभागों के बंटवारे का अधिकार मुख्यमंत्री का ही होता है। लेकिन खुद गहलोत इस बात को कह चुके हैं कि शीर्ष नेतृत्व ही फैसले पर मोहर लगा रहा है। लेकिन यह भी सच है कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है । इससे पहले भी कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व मुख्यमंत्री के चयन से लेकर राज्यों से जुड़े कई मामलों में हस्तक्षेप करता आया है।

संजय गांधी द्वारा मनोनीत मुख्यमंत्री...
5 जनवरी 1980 को जगन्नाथ पहाडिय़ा ने राजस्थान के पहले अनूसुचित जाति के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली। राज्य में यह दूसरा अवसर था जब शीर्ष नेतृत्व द्वारा चुने हुए विधायकों की जगह मनोनीत मुख्यमंत्री भेजा गया हो। पहाडिय़ा को विधायक दल के नेता चुने जाने के लिए आयोजित बैठक के दौैरान खुद संजय गांधी मौजूद थे। पहाडिय़ा तब केंद्र सरकार में वित्त राज्यमंत्री थे। इससे पूर्व मोहनलाल सुखाडिय़ा के त्यागपत्र देने बाद पूर्व पीएम इंदिरा गांधी ने बरखतुल्ला खां को मुख्यमंत्री बनवाया था। हालांकि इन दोनों ही फैसलों की कीमत सरकार और कांग्रेस को चुकानी पड़ी थी।


देना पड़ा था त्यागपत्र
पाहाडिय़ा के कार्यकाल के दौरान कांग्रेस के नेता और मंत्रिमंडल के सदस्य उनके खिलाफ हो गए । अकुशल प्रशासन के दौरान राज्य की स्थिति बदतर हो गई। शिवचरण माथुर जिन्हें इंदिरा गांधी के विश्वस्त लोगों में गिना जाता था। माथुर ने दिल्ली पहुंचकर राज्य के हालातों की जानकारी इंदिरा को दी। आखिरकार चौतरफा विरोध के बाद पहाडिय़ा को इस्तीफा देना पड़ा।