यूपी की राजनीति का वो किस्सा जिसमें एक मुख्यमंत्री सिर्फ 31 घंटे के लिए ही पद पर कायम रह सका। किस्सा साल 1998 का है, जब भाजपा और बसपा की मिली-जुली सरकार थी। कल्याण सिंह उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। मायावती ने मन बना लिया था कि वह अब कल्याण सिंह की सरकार को चलने नहीं देगी और उन्होंने इसका ऐलान एक प्रेस कांफ्रेंस में कर दिया। मायावती के बयान का मुलायम सिंह ने भी समर्थन किया और साफ शब्दों में कहा कि वह भी कल्याण सिंह सरकार को गिराने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे।
मायावती करीब 2 बजे के आसपास राजभवन पहुंची। उन्होंने अपने विधायक दल के नेता के रूप में कल्याण सिंह सरकार में ही यातायात मंत्री जगदंबिका पाल को चुना। उन्होंने राज्यपाल रोमेश भंडारी से कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त करने की सिफारिश की और जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री के रूप में शपथ दिलाने के लिए कहा।
कल्याण सिंह इन सब वाक्यों से दूर गोरखपुर में चुनाव प्रचार कर रहे थे। इस दौरान लखनऊ से फोन आया कि यहां तो सब उलट फेर चल रहा है। इसकी सूचना कल्याण सिंह को दी गई। वह चुनाव प्रचार को बीच में ही छोड़कर तुरंत लखनऊ के लिए रवाना हो गए। शाम 05 बजे कल्याण सिंह लखनऊ पहुंच गए।
कल्याण सिंह सीधे राजभवन पहुंचे यहां उन्होंने राज्यपाल रोमेश भंडारी से अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए समय मांगा। लेकिन, राज्यपाल ने उनकी एक न सुनी और बहुमत सिद्ध करने का कोई मौका ही नहीं दिया। जैसे कि उन्होंने मन बना लिया हो कि वे कल्याण सिंह की सरकार को गिरा कर ही मानेंगे।
मायावती से मुलाकात के बाद राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह की सरकार को बर्खास्त कर दिया। इसके बाद रात 10.30 बजे जगदंबिका पाल को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई। इस शपथ ग्रहण समारोह में कल्याण सिंह के जो भी राजनीतिक विरोधी थे सभी मौजूद थे। जगदंबिका पाल के साथ नरेश अग्रवाल ने उपमुख्यमंत्री पद की शपथ ली। यह सब इतनी जल्दबाजी में हुआ कि राजभवन स्टाफ राष्ट्रगान तक बजाना भूल गया।
लोकसभा चुनाव के तहत अगले ही दिन लखनऊ में वोट पड़ने थे। विपक्ष के नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने राज्यपाल के इस फैसले के विरोध में स्टेट गेस्ट हाउस में अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल पर बैठने का फैसला किया। लखनऊ सचिवालय में अजीब सी स्थिति पैदा हो गई। दो लोग राज्य के मुख्यमंत्री पद के लिए दावा कर रहे थे। स्थिति को देखते हुए बीजेपी ने राज्यपाल के फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती दे डाली।
इलाहाबाद हाईकोर्ट में 22 फरवरी 1998 को बीजेपी नेता नरेंद्र सिंह गौड़ ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में राज्यपाल के फैसले के खिलाफ याचिका दायर की और अगले ही दिन के 3 बजे हाईकोर्ट ने राज्य में कल्याण सिंह सरकार को बहाल करने के आदेश दे दिए और 3 दिन के भीतर कल्याण सिंह सरकार को बहुमत साबित करने का निर्देश दिया।
हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद जगदंबिका पाल को तगड़ा झटका लगा। उन्होंने तुरंत सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की। जगदंबिका पाल को 31 घंटे में मुख्यमंत्री पद से हटना पड़ा।
हाईकोर्ट ने कल्याण सिंह सरकार को 3 दिनों के अंदर विश्वास मत हासिल करने का निर्देश दिया। 25 फरवरी 1998 को सदन में शक्ति परीक्षण हुआ। कल्याण सिंह को 225 मत प्राप्त हुए। वहीं जगदंबिका पाल को 196 विधायकों के मत मिले। सरकार बनाने के लिए कल्याण सिंह को 213 मतों की आवश्यकता थी। इस तरह पूरे ड्रामे के बाद कल्याण सिंह सरकार की वापसी हुई।
जगदंबिका पाल के राजनीतिक करियर की शुरुआत 1982 में उत्तर प्रदेश विधान परिषद के सदस्य के तौर पर हुई, जहां उन्होंने 1993 तक दो कार्यकाल विधान परिषद के सदस्य रहे। 1988 से 1999 तक वे उत्तर प्रदेश सरकार में राज्य मंत्री के रूप में कार्यरत रहे। 1998 में वह 31 घंटे के लिए मुख्यमंत्री रहे।। 1993 से 2007 तक उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य रहे। 2002 में उत्तर प्रदेश सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे।
2009 में वे डुमरियागंज से 15वीं लोकसभा के लिए कांग्रेस पार्टी से निर्वाचित हुए। राजनीतिक गलियारों में हलचल तब मची जब 2014 में उन्होंने 15वीं लोकसभा से इस्तीफा दिया और कांग्रेस पार्टी छोड़ दी। इसके बाद उन्होंने भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का दामन थामा और डुमरियागंज से ही 16वीं लोकसभा के लिए भाजपा के टिकट पर चुने गए। वे 2019 में डुमरियागंज से 17वीं लोकसभा के लिए दोबारा निर्वाचित हुए, और हाल ही में संपन्न हुए चुनावों में भी 2024 में इसी सीट से 18वीं लोकसभा के लिए निर्वाचित हुए हैं।
Updated on:
18 Jun 2025 04:12 pm
Published on:
18 Jun 2025 01:37 pm