बदायूं भले ही आज एक छोटा सा उदास, उनींदा शहर लगता है लेकिन, इसने सदियों का एक शानदार इतिहास अपने में संजो रखा है। देश की मिली जुली-साझा संस्कृति आज भी इस शहर में जिंदा है। सूफी-संतों ने बदायूं की धरती से पूरी दुनिया को प्यार और भाईचारे का पैगाम दिया है। माना जाता है कि अहीर राजा बुद्ध ने 905 ईसवी में इस शहर को बसाया था। बुद्ध के उत्तराधिकारी ने 11वीं शताब्दी तक बदायूं पर शासन किया। सातवाहन ने अपने पुत्र चन्द्रपाल को इस शहर का शासक नियुक्त किया था। बदायूं से प्राप्त एक शिलालेख में इसका उल्लेख है। यह शिलालेख लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित है। कन्नौज के राठौर और तोमर वंशी शासकों ने भी बदायूं पर शासन किया। बाद में कंपिल के राजा हरेंद्र पाल ने तोमर को हराकर बदायूं को अपने प्रशासनिक नियंत्रण में ले लिया। 1190 में जयदेव बदायूं के राजा बने यह कन्नौज के राजा का पुत्र था। 1196 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने बदायूं को अपने कब्जे में लिया और सुल्तान इल्तुतमिश (1211-1236) के समय उसने बदायूं को अपनी राजधानी बनाया।
इल्तुतमिश के काल में खूब फला-फूला यह शहर इल्तुतमिश शासक के साथ-साथ सूफी संत था। उसने बदायूं की संस्कृति को सूफी रंग दिया। प्रोफ़ेसर गोटी जॉन के अनुसार बदायूं का नाम बेदमूथ था जो बाद में बदायूं पड़ा। अब्दुल कादिर बदायूंनी (1546-1615) की मुंतखबा उत तवारीख भारत के इतिहास में मध्यकाल पर लिखी गई प्रसिद्ध किताब है। अंग्रेजों ने 1828 में बदायूं को जिले का दर्जा दिया। बदायूं सूफी संतों का शहर रहा है। हजरत ख्वाजा हसन शाही बड़े सरकार (1188-1230) की दरगाह यहीं हैं। इनका संबंध यमन के शाही परिवार से था।
इनके छोटे भाई हजरत शेख वरूदउद्दीन शाह विलायत छोटे सरकार के नाम से जाने जाते हैं। बड़े सरकार की दरगाह सोत नदी के किनारे है। बड़ी संख्या में यहां श्रद्धालु आते हैं। बड़े सरकार और छोटे सरकार दोनों ने मानव जाति को प्रेम, भाईचारे और शांति का पाठ पढ़ाया। शेख निजामुद्दीन औलिया (1238-1325) का जन्म भी बदायूं में हुआ था। इनके पिता सैयद अहमद बुख़ारी बदायूं आकर बस गए थे शेख निजामुद्दीन औलिया ने बाद में दिल्ली में शिक्षा प्राप्त की ओर अपनी खानकाह का स्थापित की थी।
नवाब अखलास खां का मकबरा जगप्रसिद्ध बदायूं सपनों का शहर लगता है। तमाम इमारतें यहां की स्वर्णिम इतिहास की गवाह हैं। यहां मस्जिद, मकबरे और सूफी संतों की दरगाहें प्रसिद्ध हैं। सुल्तान इल्तुतमिश ने यहां जामा मस्जिद और ईदगाह बनवाई थी। मस्जिद स्थापत्य कला की दृष्टि से आध्यात्म से परिपूर्ण और भारतीय स्थापत्य कला का नायाब नमूना है। नवाब अखलास खां का मकबरा बदायूं की एक खास निधि है। बदायूं में नवाब अखलास खां के नाम पर ताजमहल जैसा ही मकबरा उनकी बेगम महबूब बेगम ने बनवाया था। यह ताजमहल जैसा ही लगता है। यह प्रेमी नहीं बल्कि एक प्रेमिका के प्यार की निशानी है। सुल्तान सैयद अलाउद्दीन ने भी 1464 में अपनी माता के लिए एक मकबरा बनवाया। यहां नवाब फरीद खां का मकबरा भी काफी प्रसिद्ध है। बदायूं में कई बड़े संगीतकार भी हुए जिनमें उस्ताद फिदा हुसैन, उस्ताद निसार हुसैन खां, उस्ताद अजीज अहमद खा, और गुलाम मुस्तफा जैसे नाम प्रमुख हैं। शकील बदायूंनी और फ़ानी बदायूंनी जैसे शायर इसी शहर की देन हैं।
शकील साहब ने लिखा है –
***** मंदिर में तू मस्जिद में तू और तू ही है ईमानों में
मुरली की तानों में तू और तू ही है अजानों में (डॉ. श्रीकांत श्रीवास्तव, लेखक भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी हैं)