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अंतिम सांसे गिन रही है ये नदियां, फेल हो गई सारी सरकारी कवायदें

नदियों को जीवनदायिनी कहा जाता है और उनके बिना जीवन की कल्पना भी मुश्किल है।

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खत्म हो रही नदियां, कैसे बचेगी जिंदगी

( लक्ष्मी नारायण शर्मा )

लखनऊ. नदियों को जीवनदायिनी कहा जाता है और उनके बिना जीवन की कल्पना भी मुश्किल है। नदियों की जलधारा को पवित्र बनाये रखकर न केवल प्रकृति में पर्यावरण का संतुलन बनाये रखा जा सकता है बल्कि अकाल, सूखे और बाढ़ जैसी स्थिति से भी बचा जा सकता है। देश में एक ओर जहाँ गंगा सहित कई बड़ी नदियों में प्रदूषण की समस्या खतरनाक रूप लेती जा रही है तो दूसरी ओर छोटी नदियों के अस्तित्व पर ख़तरा मंडराता नजर आ रहा है। उत्तर प्रदेश में जहां गंगा सहित कई नदियां प्रदूषण की चपेट में हैं तो कई छोटी नदियों का अस्तित्व खतरे में है। इन नदियों को बचाना इसलिए भी जरूरी है क्योंकि इन नदियों पर बहुत सारे गांव खेती-किसानी के लिए निर्भर हैं। इसके साथ ही ये नदियां बड़ी आबादी को पीने का पानी मुहैया कराने में मदद करती हैं।

संकट में पहूज नदी का अस्तित्व

बुंदेलखंड के झाँसी जनपद से होकर गुजरने वाली पहूज नदी इस समय अपनी आखिरी साँसें गिन रही है। जानकार बताते हैं कि पहूज नदी झाँसी के निकट बैदोरा गाँव से निकली है और जालौन में सिंध नदी में जाकर मिल जाती है। कुछ लोग मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ जिले से इस नदी की उत्पत्ति मानते हैं। पहूज नदी कई जगहों पर नाले के आकार में बदल चुकी है और कई जगहों पर पूरी तरह सूख चुकी है। वर्तमान में इसे देखकर अंदाजा लगाना भी मुश्किल हो जाता है कि यह कोई नदी है। पहूज नदी को लेकर बुंदेलखंड के लोगों की धार्मिक आस्था भी काफी गहरे से जुडी हुई हैं। माना जाता है कि प्राचीन धार्मिक ग्रंथों में इस नदी का उल्लेख पुष्पवती नदी के नाम से किया गया है। नदी के किनारे कई मंदिर और मठ भी बने हुए हैं। वर्तमान में इस नदी के दोनों ओर और कई जगह नदी की जमीन पर लोगों ने कब्ज़ा कर मकान और कालोनियां विकसित कर ली हैं।

गोमती को भी पुनरुद्धार का इन्तजार

पहूज नदी की ही तरह गोमती नदी भी अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रही है। माना जाता है कि यह नदी पीलीभीत के माधोटांडा के पास से निकली है। यह वाराणसी के पास सैदपुर के कैथी में गंगा में मिल जाती है। पौराणिक मान्यता है कि रावण वध के बाद भगवान राम ने ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त होने के लिए गुरु वशिष्ठ के आदेश पर गोमती में स्नान किया था और धनुष को भी नदी में धोया था। पीलीभीत से निकलने के बाद गोमती लखनऊ, सुल्तानपुर और जौनपुर होते हुए वाराणसी के पास गंगा में मिल जाती है। रास्ते में गोमती कई जगह पर बेहद संकुचित हो गई है। कई जगह शहर का प्रदूषित पानी गोमती नदी में बहाया जा रहा है जिसके कारण गोमती लगातार मैली होती जा रही है।

नदियों के बिना जीवन होगा मुश्किल

प्रदेश में सिर्फ गोमती और पहूज नदियां की उपेक्षा का शिकार नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की बहुत सारी नदियां इस समय अपने अस्तित्व की आखिरी लड़ाई लड़ सकती हैं। जानकार मानते हैं कि पर्यावरण संतुलन कायम रखने और खेती को बचाने के लिए इन नदियों का संवर्द्धन बेहद जरूरी है। सरकारी स्तर नदियों को बचाने और जागरूकता के लिये कई तरह के पहल शुरू हुए हैं लेकिन उनके नतीजे न के बराबर रहे। गैर सरकारी स्तर पर भी जन सहयोग से नदियों को बचाने का अभियान चलाया जा रहा है। सारे प्रयासों में यह चिंता सबसे अधिक जाहिर की जा रही है कि नदियों का अस्तित्व नहीं बचा तो जीव जंतुओं का अस्तित्व ख़त्म हो जाएगा। नदियों का पानी न सिर्फ सिचाई के काम आता है बल्कि बहुत सारे उद्योग-धंधे में इसके पानी का उपयोग होता है। नदियों के पानी का उपयोग पीने के लिए भी किया जाता है। नदियों के अस्तित्व पर ख़तरा मंडराने से मानव जीवन पर भी बड़ा ख़तरा मंडराता दिख रहा है।

बेअसर रहे सरकारी अभियान

नदियों के प्रति जागरूकता पैदा करने और उनके संरक्षण के मकसद से केंद्र सरकार के कई मंत्रियों और सांसदों ने अपने क्षेत्र की नदियों को गोद लिया था लेकिन यह पहल भी कोई ख़ास असर नहीं दिखा सकी। नदियों के किनारे पेड़ लगाने के भी अभियान चलाये गए। इन प्रयासों के बाद भी अभी बड़े पैमाने पर प्रयास किये जाने की जरूरत महसूस हो रही है। इन अभियानों में सरकार ने नदियों में बहाये जाने वाले सीवर लाइन और उद्योगों के कचरों को रोकने की कोशिश शुरू की लेकिन कोई ख़ास सफलता नहीं मिल सकी।

जन जागरूकता की जरूरत

जल स्रोतों के संरक्षण के लिए चल रहे सरकारी प्रयासों के बीच गैर सरकारी स्तर पर भी कई तरह की पहल की जा रही है। प्रदेश के वरिष्ठ आईपीएस अफसर महेंद्र मोदी एक अनोखी मुहिम चला रहे हैं। विलुप्त हो रही नदियों को पुनर्जीवित करने के मकसद से उन्होंने प्रदेश भर में गैर सरकारी संस्थाओं और जन समुदाय के साथ जलस्रोतों को पुनर्जीवित करने का अभियान चला रखा है। सूख चुके कुएं, तालाबों पर भी वे लोगों के साथ श्रमदान कार्यक्रम चलाकर उनमें पानी लाने की कोशिश कर रहे हैं। बुन्देलखण्ड में उन्होंने वर्षा जल को संचित करने का भी अनोखा मॉडल तैयार किया। कामकाज के बीच समय निकालकर वे ऐसे अभियानों में हिस्सा लेते हैं। गोमती नदी की सफाई के लिए भी पिछले दिनों उन्होंने स्वयंसेवी संस्थाओं और स्थानीय लोगों के साथ श्रमदान कार्यक्रम आयोजित कराया। वे कहते हैं कि पर्यावरण संरक्षण केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है। इसके लिए लोगों को भी अपनी भूमिका समझनी होगी। यह जीवन और अस्तित्व से जुड़ा सवाल है इसलिए सबको अपनी बराबर की जिम्मेदारी निभानी ही होगी।