
ढ़ोल, टिमकी और गुदुंब वाद्य यंत्रों में थिरकते है लोग
मंड़ला। आदिवासी संस्कृति से भरपूर मंडला जिले में फसलों की कटाई के बाद खुशियां मनाने का दौर शुरू हो जाता है। विकासखंड बिछिया अंतर्गत देई में इन दिनों कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे है। जिसमें आदिवासियों की संस्कृति व उनके रहन सहन में आज भी पुरानी विचारधारा और वेशभूषा के साथ नृत्य व संगीत देखने को मिलता है। गौरतलब है लोक परंपराओं में हम अपने त्योहारों के असली स्वरूप को जीते और महसूस कर पाते हैं। कोई भी त्योहार हो, उसमें गीत-संगीत तो हमेशा ही शामिल रहता है। ये सभी सबसे ज्यादा आदिवासी इलाकों में देखने को मिलता है। जहां भले ही भौतिक साधनों की कमी हो पर जीवन का सुख वे अपनी परंपराओं में ढूंढ लेते हैं। नृत्य, संगीत और रंग-बिरंगे परिधानों से ये अपनी ऊर्जा और उत्साह को बरकरार रखते हैं। जिले में गोंड जनजाति के लोग नृत्य और संगीत के शौकीन हैं और यह नृत्य आंचलिक जनजीवन का एक जरूरी हिस्सा है। ग्रामीण इलाकों के ज्यादातर त्योहार, फसलों से जुड़े होते हैं। इनकी कटाई के बाद ईश्वर को शुक्रिया कहने के लिए गीत-संगीत से बेहतर कोई माध्यम नहीं। सैला मंडला की गोंड जनजाति का आदिवासी नृत्य है, जो फसल की कटाई के बाद किया जाता है। जब अनाज घर में आ जाता है और मेहनत के रंग खेतों से होकर घर के आंगनों में बिखरने लगता है तो चारों ओर हर्ष उल्लास का माहौल होता है। सैला नृत्य से जुड़े कलाकारों का परिधान पीले गमछा, सफेद धोती कुर्ते, साडिय़ां, काली जैकेट और धोती होता है। ढ़ोल, टिमकी और गुदुंब वाद्य यंत्रों से निकलती ध्वनियों पर उल्लास में थिरकते पैरों को मानो सारे जहां की खुशियां मिल गई हों। नृत्य में औरतें भी हिस्सा लेती हैं। नर्तकों के हाथ में लकडिय़ां होती हैं, जिसे वे साथी कलाकार के साथ बजाकर नृत्य करते हैं। नृत्य के समापन पर अनाज दिया जाता है और भोजन पकवान का आदान-प्रदान करते है और उसी से सभी मिलजुल कर खाना खाते हैं और अगली फसल के लिए भगवान से प्रार्थना करते हैं।
Published on:
10 Jan 2020 08:51 pm
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