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Exclusive: भगवान श्रीेकृष्ण यादव थे पर अब यादव इसलिए नहीं खेल सकते लठमार होली

भगवान श्रीकृष्ण खुद यादव थे तो यादव समाज के लोग हुरियारे बनकर राधा रानी रूपी सखियों के साथ होली खेलने क्यों नहीं जाते।

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Lathmar holi

Lathmar holi

विकास चौधरी
द्वापर युग में नंददुलारे व ब्रजरानी के अमर प्रेम की गाथा का ही एक हिस्सा है, भगवान श्रीकृष्ण का अपनी सखी राधा के साथ होली खेलना। उसी 5500 सा पुरानी परंपरा में नंदगांव के लोग आज भी बंशीवाले व बरसाना की हुरियारनें राधा रानी का रूप ले लेती हैं। आज भी वही मोरमुकुटधारी का राधा को रंगना, वही मस्ती, बदले में राधारूपी सखियों का लठ बरसाना। बरसाने व नंदगांव की लठमार होली अब तो देश विदेश के लोगों के दिल में समा चुकी है। वहीं एक पंरपरा है कि हुरियारे व हुरियारनें बनने का मौका केवल ब्राहृमण समाज को ही मिलता है। ऐसे में उत्सुकता होती है कि जब भगवान श्रीकृष्ण खुद यादव थे तो यादव समाज के लोग हुरियारे बनकर राधा रानी रूपी सखियों के साथ होली खेलने क्यों नहीं जाते।

लोगों के अपने अपने मत
इस बारे में हमने ब्रज में कई हुरियारों, हुरियारनों, नंदगांव व बरसान के बडे लोगों से बातें की। सबके अपने मत रखे लेकिन अपना नाम बताकर कोई इस रहस्य को खोलना भी नहीं चाहता। इस पर भी एक बात सबने कही कि महाभारत युदृध के बाद कौरवों की माता गांधारी ने क्रोधित होकर बांकेबिहारी को श्राप दे दिया था।

हो जाओगे नष्ट
बताते हैं कि गांधारी ने भगवान रणछोड को कहा था कि तुम्हारे कारण से जिस प्रकार से मेरे सौ पुत्रों का आपस में लड़ कर के नाश हुआ है, तुम्हारे यदुवंश का भी वैसे ही नाश हो जायेगा। अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। हालांकि माता गांधारी के उस श्राप को पूर्ण करने के लिये यशोदानंदन ने ही यादवों की मति को फेर दिया था। इस पर दुर्वासा ऋषि ने भी श्राप दे दिया कि यादव वंश का नाश हो जाये। उनके श्राप के प्रभाव से यदुवंशी पर्व के दिन प्रभास क्षेत्र में आ गए। पर्व के खुशी में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले हो कर एक दूसरे को मारने लगे। इस तरह से क्षेत्र से यादव वंश श्राप के प्रभाव से खत्म हो गया। बाद में ब्राहृण समाज ने अपने आराध्य भगवान की परंपरा को जीवित रखा व हुरियारे हुरियारनें बनकर श्याम—वृन्दावनविहारिणी को नमन करते हैं, उनका रूप रखते हैं ।

ये तो परंपरा है
लोग यह भी मानते हैं कि युगों के बाद भी कोई परंपरा चल रही तो उसे उसी रूप में लेना चाहिए। यह भगवान वासुदेव व हरिप्रिया के निश्छल प्रेम के प्रतीक के रूप में लेना ही उचित है और वर्तमान से इसे जोड़ना ठीक नहीं होगा ।


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