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लखनऊ के बाद यूपी के इस विश्वविद्यालय में अटल बिहारी वाजपेयी पर हुए सबसे ज्यादा शोध

locationमेरठPublished: Aug 17, 2018 05:27:01 pm

Submitted by:

sanjay sharma

विश्वविद्यालय के छात्रों ने पूर्व प्रधानमंत्री के निधन पर शोक जताया

meerut

लखनऊ के बाद यूपी के इस विश्वविद्यालय में अटल बिहारी वाजपेयी पर हुए सबसे ज्यादा शोध

मेरठ। पूर्व प्रधानमंत्री और कुशल राजनीतिज्ञ के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा याद किए जाएंगे। इसके साथ ही वह देश कवि ह्दय और एक अच्छे वक्ता भी थे। अटल जी आज देशवासियों के बीच से भले ही चले गए हों, लेकिन उनके नाम पर देश और प्रदेश के विश्वविद्यालय में तमाम शोध हो चुके हैं। अटल बिहारी वाजपेयी जी के नाम पर सर्वाधिक शोध लखनऊ विश्वविद्यालय में किए गए। लखनऊ विवि में अटल जी पर नौ शोध हो चुके हैं।
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मेरठ के सीसीएस विश्वविद्यालय में चार शोध

इसके बाद दूसरे नंबर पर नाम आता है चौधरी चरण सिंह विवि का, जहां पर पूर्व प्रधानमंत्री पर अब तक चार शोध हो चुके हैं। चौधरी चरण सिंह विवि के शोध ग्रंथों में पूर्व प्रधानमंत्री हमेशा जीवित रहेंगे। सीसीएसयू विवि में जो शोध हुए उनमें से एक शोध अटल बिहारी वाजपेयी की पूर्व गठबंधन सरकार को लेकर हुई थी। सीसीएसयू विवि के राजनीति विज्ञान विभाग में देश के इस पूर्व प्रधानमंत्री पर चार शोध हो चुके हैं। इनमें से एक शोध वर्ष 2006 में अटल बिहारी जी की गठबंधन सरकार पर हुआ है। गठबंधन सरकार में प्रधानमंत्री का नेतृत्व पर हुई इस शोध में अटल बिहारी वाजपेयी के संबंध में विशेष अध्ययन किया गया। यह शोध कुमारी हेमू पाठक ने की। इस पीएचडी में अटल बिहारी वाजपेयी की 13 दिन, 13 महीने, उनके कार्यवाहक प्रधानमंत्री और गठबंधन की सरकार की मजबूरियों पर विशेष रूप से केंद्रित किया गया था। शोध में वाजपेयी के कई रूपों का प्रमुखता से वर्णन किया गया। जिनमें उसके संघ के कार्यकर्ता, उनके कवि और पत्रकार होने के साथ ही उसके विदेश नीति का वर्णन किया गया है। भारतीय जनसंघ के दौरान उनकी छवि को भी प्रमुखता से वर्णित किया गया है।
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इस विश्वविद्यालय से जुड़ाव रहा

इसके अलावा उनके चिंतन, लोकतंत्र, समाजवाद और राष्ट्रवाद के संदर्भ में भी अन्य शोध किए गए। पश्चिम उप्र का एकमात्र उच्च शिक्षा का केंद्र चौधरी चरण सिंह विवि देश के इस पूर्व प्रधानमंत्री से किसी न किसी रूप में हमेशा से जुड़ा रहा। करीब एक दशक पूर्व अटल बिहारी वाजपेयी की कविताआें को हिन्दी विभाग ने अपने पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात कही थी, लेकिन भीतरी राजनीतिक कारणों से इसे स्वीकृत प्रदान नहीं की जा सकी।
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