
उपचुनाव Result: रालोद को जिसकी तलाश थी, वह मुकाम कैराना में हासिल कर लिया
मेरठ। कैराना उपचुनाव में रालोद उम्मीदवार तबस्सुम हसन की जीत रालोद के लिए किसी संजीवनी से कम नहीं है। 2014 में हुए आम चुनाव मोदी लहर में अपना राजनैतिक वजूद खो चुके रालोद अध्यक्ष अजित सिंह ऐसी ही संजीवनी की तलाश में थे जो उन्हें क्षेत्रीय दलों के गठबंधन से मिल गई। रालोद का राजनैतिक चक्र ऐसे ही गठबंधनों की बदौलत चलता रहा है। 2014 में मिली हार के बाद से अजित सिंह पश्चिम उप्र में नए सिरे से सक्रिय हुए और विरोधियों को अपनी ताकत का एहसास कराने का प्रयत्न करते रहे। भविष्य में उन्हें रालोद का वजूद बचाना है तो सियासत के लिए ऐसा करना उनकी मजबूरी भी थी। इसी कारण उन्होंने कैराना में तबस्सुम हसन को अपने चुनाव चिन्ह पर चुनाव लड़वाया। कैराना और नूरपुर की प्रशस्त जीत के बाद अजित सिंह ने ये संकेत भी दे दिए है कि यूपी में गठबंधन के लिए एक नया समीकरण तैयार करेंगे।
2012 से 2018 तक लगते रहे झटके
रालोद अध्यक्ष अजित सिंह को वर्ष 2012 से ही राजनीतिक झटके लगते रहे। 2012 के शुरूआती में विधानसभा चुनाव में बड़ौत और बागपत सीट का हारना अजित सिंह के लिए सबसे बड़ा झटका साबित हुआ था। यहीं से उनके राजनीति दिनों के पतन की शुरूआत हुई।
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2013 में दंगे के बाद टूट गया रालोद का समीकरण
इसके बाद वर्ष 2013 में मुजफ्फरनगर दंगा हुआ और पश्चिमी यूपी में रालोद का मुस्लिम समीकरण पूरी तरह से टूट गया। ऐसे में अपनी डूबती साख को बचाने के लिए अजित सिंह ने आम चुनाव 2014 से ठीक पहले ’जाट आरक्षण’ का मुद्दा उठाया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। वर्ष 2014 के आम चुनाव में अजित सिंह मोदी लहर में डूब गए। चुनावी नतीजे रालोद के खिलाफ रहे। तब से ही अजित सिंह यूपी में खासकर पश्चिम उप्र में संजीवनी तलाश रहे थे। जो उन्हें कैराना में हुए उपचुनाव के दौरान मिल ही गई। गठबंधन की यह जीत कितनी सफल होगी यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। लेकिन भाजपा के विपक्ष में सभी राजनीतिक पार्टियां तैयारी में जुट गई हैं। रालोद के राष्टीय महासचिव डा. मैराजुद्दीन कहते हैं कि रालोद काफी समय से इस प्रयास में जुटा हुआ था कि सभी पार्टियां भाजपा के खिलाफ एकजुट हो तभी उससे लड़ाई जीती जा सकती है। पहले गोरखपुर और फूलपुर अब कैराना, नूरपुर इसके सबसे बढिया उदाहरण और परिणाम हैं।
Updated on:
31 May 2018 11:04 pm
Published on:
31 May 2018 02:38 pm
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