
चंद्रकांता से मिली थी इस किलों को पहचान, अब यहां जल्द शुरू होगा लाइट एंड साउंड शो
मिर्ज़ापुर. ऐतिहासिक धरोहर के रूप में खास पहचान रखने वाले मिर्जापुर जिले के चुनार में स्थित चुनार के किले को देखने के लिए यू तो हजारों पर्टक यहां पहुंचते है। लेकिन पर्यटकों को और अधिक आकर्षित करने के लिए किले में जल्द ही लाइट और साउंड शो शुरू कराया जाएगा। इसके लिए केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल ने जिला प्रसासन को प्रस्ताव तैयार कर इसे जल्द से जल्द शुरू करने को कहा है। उम्मीद जताई जा रही कि किले पर लाइट और साउण्ड शो शुरू होने के बाद पर्यटकों कि संख्या में वृद्धि होने से स्थानीय लोगों को रोजगार मिलेगा।
गौरतलब है कि किले में लाइट और साउंड शो के लिए पूर्व डीएम विमल कुमार दुबे ने अपने कार्यकाल के दौरान खूब प्रयास किया था। उस दौरान लगभग सारी तैयारियां पूरी हो चुकी थी। उम्मीद जताई जा रही थी कि जल्द ही इसकी शुरुआत किले पर हो जाएगी। लेकिन उनके स्थानांतरण के बाद काम प्रभावित हो गया। लेकिन अब एकबार फिर केंद्रीय मंत्री अनुप्रिया पटेल के प्रयासों के बाद काम में तेजी आने कि उम्मीद जताई जा रही है।
बतादें कि इतिहास को समेटे यह किला देवकीनंदन खत्री के उपन्यास चंद्रकांता से अधिक प्रसिद्ध हुआ। सैकड़ों सालों से गंगा के किनारे खड़े चुनार के किले को अलग-अलग समय में भिन्न-भिन्न नामों से जाना जाता रहा है। इसे लोकगाथाओं में पत्थरगढ़, नैनागढ़, चरणाद्रिगढ़ आदि नामों से भी जाना जाता है। बलुए पत्थरों से बना यह किला तीन तरफ से गंगा और खाई से घिरा है। यह किला आसमान से देखने पर पैर कि आकृति के समान नजर आता है। जिसके कारण इससे चरणाद्रिगढ़ के नाम से जाना जाता है।
धार्मिक मान्यताओं के अनुसार इस किले पर वामन अवतार में भगवान विष्णु का पैर पड़ा था। हालांकि किवंदतियों के अनुसार इस किले का निर्माण 56 ईसवी में राजा विक्रमादित्य ने अपने सन्यासी भाई भर्तहरि के लिये करवाया था। आज भी किले के अंदर भर्तहरि कि समाधि मौजूद है। हालांकि इतिहासकार किले के निर्माण काल के समय को लेकर कभी भी एक मत नहीं है। अपनी भौगोलिक और रणनीतिक मौजूदगी के कारण यह किला विभिन्न शासन काल मे इस किले पर कई शासकों ने शासन किया था।
किले में लगे शिलापत्र के मुताबिक उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद इस किले पर 1141 से 1191 ई. तक पृथ्वीराज चौहान, 1198 में शहाबुद्दीन गौरी, 1333 से स्वामीराज, 1445 से जौनपुर के मुहम्मदशाह शर्की, 1512 से सिकन्दर शाह लोदी, 1529 से बाबर, 1530 से शेरशाहसूरी और 1536 से हुमायूं आदि शासकों का अधिपत्य रहा है।शेरशाह सूरी से हुए युद्ध में हुमायूं ने इसी किले में शरण ली थी। शेरशाह सूरी के पश्चात 1545 से 1552 तक इस्लामशाह, 1575 से अकबर के सिपहसालार मिर्जामुकी और 1750 से मुगलों के पंचहजारी मंसूर अली खां का शासन इस किले पर था।
1765 ई. में अवध के नवाब शुजाउदौला के कब्जे में रहा इसके बाद 17 81 ई में ब्रिटिश आधिपत्य में चला गया।स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस किले पर उत्तर प्रदेश सरकार के कब्जे में है।यहां पर पीएसी कैम्प खोला गया हालकि 2017 में उसे भी यहां से हटा दिया गया। अपने रणनीतिक भौगोलिक स्थिति के कारण महत्वपूर्ण किले के रूप में साबित हुआ।गंगा के किनारे व बिहार बंगाल मार्ग पर इस किले कि मौजूदगी ने इसे व्यापारिक और सैन्य अभियान के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण स्थान दिलवाया।
कहते है कि उस समय चुनार से बंगाल के बीच कोई भी किला नहीं था। इस लिए इस किले का इस्तेमाल सैनिकों के पड़ाव और रशद इकठ्ठा करने के लिए किया जाता था। इस किले का जुड़ाव प्रसिद्ध योद्धा आल्हा से भी जोड़ कर देखा जाता है। यहां आल्हा की पत्नी सोनवा का मंडप आज भी मौजूद है। किले में कई सुरंग और तहखाने है जो इसके रहस्य और तिलस्म को बढ़ाते है। फिलहाल यहां पर लाइन और साउंड शो होने से पर्यटकों को किले के बारे में जानने के अलावा एक अलग ही रोमांच का अनुभव कराएगा। इसके साथ ही यहां घूमने के लिए पर्यटकों को अपनी जेब ज्यादा ढीली नहीं करनी पड़ती।
Published on:
19 Jun 2018 06:51 pm
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