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1965- भारत-पाक युद्ध, भारतीय सेना ने लाहौर तक खोला था मोर्चा, हरित क्रांति से आत्मनिर्भर बना देश

1965 का भारत-पाक युद्ध कश्मीर के दूसरे युद्ध के नाम से भी जाना जाता है

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Sunil Sharma

Aug 10, 2017

1965 indo pak war 2

1965 indo pak war 2

5 अगस्त 1965 को करीब 30000 पाकिस्तानी सैनिकों ने कश्मीर की स्थानीय आबादी की वेषभूषा पहनकर नियंत्रण रेखा को पार कर भारतीय कश्मीर में प्रवेश कर लिया। स्थानीय मुखबिरों से इस घुसपैठ की सूचना पाकर भारतीय सेना ने 15 अगस्त को पाकिस्तानी सेना को मुंहतोड़ देने के लिए नियंत्रण रेखा पार कर दी। और इस तरह से भारत-पाकिस्तान में 1965 का युद्ध छिड़ गया।

1965 का भारत-पाक युद्ध कश्मीर के दूसरे युद्ध के नाम से भी जाना जाता है।भारत और पाकिस्तान के मध्य जम्मू और कश्मीर राज्य पर अधिकार के लिए बॅटवारे के समय से ही विवाद चल रहा है। 1947में भारत-पाकिस्तान के बीच पहला युद्ध भी कश्मीर पर अधिकार को लेकर हुआ था।

1965 की इस लड़ाई की शुरूआत पाकिस्तान ने अपने सैनिकों को घुसपैठियों के रूप में भेज कर इस उम्मीद में की थी कि कश्मीर की जनता भारत के खिलाफ विद्रोह कर देगी। इस अभियान का नाम पाकिस्तान ने युद्धभियान जिब्राल्टर रखा था। पांच महीने तक चलने वाले इस युद्ध में दोनों पक्षों के हजारों लोग मारे गये। इस युद्ध का अंत यूएनआे के द्वारा युद्ध विराम की घोषणा के साथ हुआ और ताशकंद में दोनों पक्षों में समझौता हुआ।

1965 भारत-पाक युद्ध की खास बातें

हरित क्रांति - अनाज पैदावार में आत्मनिर्भर हुआ देश

कर्इ दशकों तक अकाल और सूखे की मार झेल चुके भारत में हरित क्रांति की शुरूआत सन् 1965-68 के बीच की गर्इ। भारत में हरित क्रांति का उदे्श्य अल्पकाल में कृषि उत्पादन में सुधार और लम्बी अवधि तक उसकी गुणवत्ता बनाए रखना था। विश्व में हरित क्रांति शुरू करने का श्रेय नोबल पुरस्कार विजेता प्रोफेसर नारमन बोरलॉग को जाता हैं।

हरित क्रांति में फसल पैदावार उन्नत करने के लिए विभिन्न तरीकों का उपयोग किया, इन तरीकों में आधुनिक कृषि पद्धतियों के साथ बीज की उच्च उपज वाली किस्मों और सिंचाई संरचना का उपयोग शामिल था।

हरित क्रान्ति के फलस्वरूप देश के कृषि क्षेत्र में महत्वपूर्ण प्रगति हुई। कृषि आगतों में हुए गुणात्मक सुधार के फलस्वरूप देश में कृषि उत्पादन बढ़ा है, खाद्यान्नों में आत्मनिर्भरता आई है। कृषकों के दृष्टिकोण में परिवर्तन होने से व्यवसायिक कृषि को बढ़ावा मिला। हरित क्रान्ति के फलस्वरूप गेहूँ, गन्ना, मक्का तथा बाजरा आदि फ़सलों के प्रति हेक्टेअर उत्पादन एवं कुल उत्पादकता में काफ़ी वृद्धि हुई है।

हरित क्रांति का इतिहास

सरे विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद जब विजयी अमरीकी सेना जापान पहुंची तो उसके साथ कृषि अनुसंधान सेवा के ऐस सिसिल सैल्मन भी थे। इस बात पर विचार होने लगा कि जापान का पुनर्निर्माण कैसे किया जाए। सैल्मन का ध्यान कृषि विकास पर था। उन्हें नोरिन नामकी गेंहू की एक क़िस्म मिली जिसका दाना काफ़ी बड़ा होता था।
सैल्मन ने इसे और शोध के लिए अमरीका भेजा। तेरह साल के प्रयोगों के बाद 1959 में गेन्स नामकी क़िस्म तैयार हुई। नॉरमन बोरलॉग ने उसका मैक्सिको की सबसे अच्छी क़िस्म के साथ संकरण किया और एक नई क़िस्म निकाली। इधर भारत में अनाज की उपज बढ़ाने की सख़्त ज़रूरत थी। भारत को बोरलॉग और गेहूं की नोरिन क़िस्म का पता चला।पूसा के एक छोटे से खेत में इसे बोया गया और उसके अभूतपूर्व परिणाम निकले।

सुब्रमण्यम ने दिया महत्वपूर्ण योगदान

1965 में भारत के कृषि मंत्री थे सी सुब्रमण्यम। उन्होंने गेंहू की नई क़िस्म के 18 हज़ार टन बीज आयात किए, कृषि क्षेत्र में ज़रूरी सुधार लागू किए, कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से किसानों को जानकारी उपलब्ध कराई, सिंचाई के लिए नहरें बनवाईं और कुंए खुदवाए, किसानों को दामों की गारंटी दी और अनाज को सुरक्षित रखने के लिए गोदाम बनवाए।

देखते ही देखते भारत अपनी ज़रूरत से ज़्यादा अनाज पैदा करने लगा। यूं तो नॉरमन बोरलॉग हरित क्रांति के प्रवर्तक माने जाते हैं लेकिन भारत में हरित क्रांति लाने का श्रेय सी सुब्रमण्यम को जाता है। एम ऐस स्वामीनाथन एक जाने माने वनस्पति विज्ञानी थे जिन्होंने हरित क्रान्ति लाने के लिए सी सुब्रमण्यम के साथ काम किया।


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