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मिसाल: ‘जिंदगी में संघर्ष किए, क्योंकि मैं अपने सपने को जीना चाहती थी’- डाॅक्टर इंदिरा हिंदुजा

Highlights. - मुश्किल हालात में भी सपने को कभी मरने नहीं दिया - करीब 3 साल की उम्र में माता-पिता संग पाकिस्तान से भारत आई - अंग्रेजी मीडियम स्कूल में पढ़ना चाहतीं थीं, लेकिन सरकारी स्कूल में पढ़ना पड़ा

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Ashutosh Pathak

Nov 29, 2020

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नई दिल्ली।

पाकिस्तान के शिकारपुर से जब मैं अपने माता-पिता के साथ आई, तब मेरी उम्र ढाई-तीन साल थी। जैसा कि मैंने अपने माता-पिता से सुना, हम लोग जहाज से आए और मुंबई पहुंचे। यहां छोटी-सी जगह में मुश्किलों के बीच दिन गुजारे। पिताजी का मानना था कि कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा तो हम वापस लौट जाएंगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

जिंदगी में काफी मुश्किलें और संघर्ष था। मुंबई के बाद पुणे और बाद में बेलगाम शिफ्ट हुए। मैं अंग्रेजी मीडियम स्कूल में नहीं, सरकारी स्कूल में पढऩे जाती थी। सपना कुछ करने का था, लेकिन हालात साथ नहीं थे। हालांकि, मुश्किलों में भी मैंने अपने सपने को कभी मरने नहीं दिया।

तब ठान लिया डॉक्टर ही बनूंगी

एक बार पैर फ्रैक्चर होने पर मैं अस्पताल में भर्ती हुई। सफेद कोट व गले में स्टेथोस्कोप डाले डॉक्टर को देखा तो ठान लिया कि मुझे डॉक्टर बनना है। मैं पढऩा चाहती थी, अपने सपने को जीना चाहती थी।

जब ह्यूमन एग देखा...

मेरा केईएम अस्पताल और इंस्टीट्यूट फॉर रिसर्च इन रिप्रोडक्शन ने काफी साथ दिया। 1982 में रिसर्च के दौरान पहली बार ह्यूमन एग देखा। मुझे इससे संबंधित पेपर प्रेजेंटेशन के लिए बोस्टन जाने का मौका मिला। लेकिन पैसे नहीं थे। तब मेरी दोस्त डॉ. कुसुम झवेरी ने मदद की।

मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी उपलब्धि

दिसंबर 1985 में आइवीएफ के जरिए मेरी एक मरीज गर्भवती हुई। 6 अगस्त 1986 को टेस्ट ट्यूब बेबी हर्षा चावड़ा का जन्म कराया, यहां तक कि उसके दोनों बच्चों का जन्म भी मैंने ही कराया। फिर 1988 में पहले गि ट बेबी, 1990 में एग डोनेशन बेबी, आइवीएफ से तीन बच्चों का जन्म, इन सभी का डॉ यूमेंटेशन आज भी इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ रिप्रोड शन मेडिसिन के पास मौजूद है।