
नई दिल्ली। अग्रेंजी हुकूमत में भारत का फॉरबिडन लैंड कहे जाने वाले तिब्बत का बिना किसी अत्याधुनिक उपकरण का नक्शा तैयार करने वाले नैन सिंह रावत के जयंति को आज पूरे विश्व में सेलीब्रेट किया जा रहा है। इस अवसर पर गूगल ने एक विशेष डूडल तैयार कर नैन सिंह को याद किया है। नैन सिंह वो भारतीय है, जिनका नाम ब्रितानिया हुकुमत में भी सम्मान के साथ लिया जाता था। जब चीन से सटे तिब्बत में किसी भी विदेशी के आने पर मनाही थी, तब रावत न केवल इस फॉरबिडन लैंड में पहुंचे बल्कि सिर्फ रस्सी, कंपास, थर्मामीटर और कंठी के माध्यम से ही समूची तिब्बत नाप ले आए।
कौन है नैन सिंह रावत
पंडित नैन सिंह रावत उत्तराखण्ड के छोटे से गांव के शिक्षण का काम करते थे। उनका जन्म 21 अक्टूबर 1930 को हुआ था। इन्होंने 19वीं सदी में न केवल पैदल तिब्बत को नापा डाला, बल्कि वहां का नक्शा तैयार कर लाए। सर्वे ऑफ इंडिया के मुताबिक 19वीं शताब्दी में जब अंग्रेज़ भारत का नक्शा लगभग तैयार कर चुके थे, तो अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण तिब्बत को नक्शे में समाहित करना उनके लिए सबसे मुश्किल भरा साबित हो रहा था। इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि दुनिया से छुपे इस क्षेत्र के बारे में न केवल जानकारियां कम थीं, बल्कि विदेशियों का वहां जाना भी सख़्त मना था। ऐसे में अंग्रेज इस उलझन में थे कि आखिर वहां का नक्शा तैयार होगा कैसे? ऐसे में किसी भारतीय को ही वहां भेजने की योजना बनाई गई। इसके लिए लोगों खोज शुरू हुई। आखिरकार 1863 में कैप्टन माउंटगुमरी को दो ऐसे लोग मिल ही गए। ये थे उत्तराखंड निवासी 33 साल के पंडित नैन सिंह और उनके चचेरे भाई मानी सिंह।
मुश्किलों के बाद भी जारी रहा सफर
दरअसल, तिब्बत की यात्रा बहुत जोखिम भरी थी। वहां कोई भी विदेश पकड़ा जाने पर उसको मौत की सजा सुनाई जाती थी। ऐसे में ऐसे में तय किया गया कि दिशा नापने के लिए छोटा कंपास और तापमान नापने के लिए थर्मामीटर इन भाइयों को दिया जाएगा। जिसके चलते दूरी नापने के लिए नैन सिंह के पैरों में 33.5 इंच की रस्सी बांधी गई ताकि उनके कदम एक निश्चित दूरी तक ही पड़ें। इसके अलावा हिंदुओं के धार्मिक अनुष्ठानों में काम आने वाली 108 की कंठी के बजाय उन्होंने 100 मनकों वाली माला का इस्तेमाल किया और 1863 में दोनों भाइयों ने अपनी—अपनी राहें पकड़ ली। नैन सिंह रावत नेपाल और मानी सिंह कश्मीर के रास्ते तिब्बत पहुंचने के लिए अपनी यात्रा शुरू की। हालांकि मानी सिंह इसमें विफल रहे और वापस लौट आए, लेकिन नैन सिंह ने हिम्मत नहीं हारी और यात्रा जारी रखी। आखिरकार नैन सिंह तिब्बत पहुंचे और वहां बौद्ध भिक्षुओं में मिल गए और अपने काम को अंजाम दिया। तमाम मुश्किलों के बाद भी अपने काम को अंजाम देने के बाद लौटे नैन सिंह को अंग्रेजी सरकार की खूब सराहाना मिली और उन्हें 1877 में बरेली के पास 3 गांवों की जागीरदारी दे दी गई। यहीं नहीं अंग्रेजी हुकूमत में उनको कम्पेनियन ऑफ द इंडियन एम्पायर का खिताब भी दिया गया।
Published on:
21 Oct 2017 09:03 am
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