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जब पार्टी पर अधिकार और सत्ता के लिए परिवार में ही छिड़ी जंग

सत्ता के लालच में एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग पार्टियों में दिखाई देते हैं और आम मतदाता यही नहीं समझ पाता कि परिवार के किस नेता पर क्यों भरोसा किया जाए।

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Sunil Sharma

Jun 19, 2021

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नई दिल्ली। आज देश में भले ही लोकतंत्र का गुणगान किया जा रहा है परन्तु भारतीय समाज में गहराई से बैठी राजशाही की प्रवृत्ति अभी भी स्पष्ट रूप से दिखाई दे रही है। यही कारण है कि वाम दलों को छोड़ दिया जाए तो शायद ही देश में कोई ऐसी पार्टी होगी जहां परिवारवाद नहीं दिखाई देगा। इन सभी पार्टियों में न केवल परिवारवाद हावी है वरन परिवार में ही सत्ता के लिए संघर्ष भी हो रहा है जिसका तमाशा जनता देख रही है। भारतीय जनमानस के लिए सबसे बड़े दुर्भाग्य की बात तो यही है कि सत्ता के लालच में एक ही परिवार के सदस्य अलग-अलग पार्टियों में दिखाई देते हैं और आम मतदाता यही नहीं समझ पाता कि परिवार के किस नेता पर क्यों भरोसा किया जाए।

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इन दिनों लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) में चिराग पासवान और उनके चाचा पशुपति कुमार पारस के बीच चल रही उठापटक इतिहास में पहली बार नहीं हो रही है वरन इसे हम कांग्रेस में संजय गांधी वर्सेज इंदिरा गांधी के रूप में देख चुके हैं तो मध्यप्रदेश की सिंधिया फैमिली का भी उदाहरण हमारे सामने है जहां परिवार के सदस्य कांग्रेस और भाजपा के खेमे का सहारा लेते हुए आपस में ही लड़ रहे हैं।

ऐसा भी नहीं है कि यह केवल उत्तर भारत की राजनीति में हो रहा है, दक्षिण भारत का राजनीतिक चेहरा भी कुछ इससे अलग नहीं है। आइए जानते हैं सत्ता और राजनीति से जुड़े ऐसे ही कुछ किस्सों के बारे में-

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गांधी वर्सेज गांधी (Congress)
देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस के एक धड़े का मानना है कि वरुण गांधी हर तरह से राहुल गांधी से होशियार है, यदि वह पार्टी की कमान संभाले तो कोई चमत्कार कर सकते हैं। दुर्भाग्यवश वरुण गांधी आज भाजपा में हैं। गांधी खानदान की यह लड़ाई संजय गांधी की मृत्यु के बाद शुरू हुई जब इंदिरा गांधी ने मेनका गांधी को घर से बाहर निकाल दिया। उसी वक्त मेनका गांधी ने कांग्रेस में फिर से न लौटने की ठान ली थी। मेनका ने 1984 में अमेठी से राजीव गांधी के विरुद्ध चुनाव भी लड़ा परन्तु उन्हें हार का मुंह देखना पड़ा। धीरे-धीरे समय बदला और आज वह स्वयं तथा उनके पुत्र वरुण गांधी दोनों ही भाजपा के सांसद है।

समाजवादी पार्टी (SP)
देश के सबसे बड़े राज्य उत्तरप्रदेश की राजनीति में समाजवादी पार्टी का अपना रुतबा है। मुलायम सिंह यादव ने इस पार्टी की स्थापना की और जब तक उनके हाथ में पार्टी की कमान रही, पार्टी एकजुट रही परन्तु उनके अघोषित सन्यांस के बाद से उनके पुत्र अखिलेश यादव तथा उनके भाई राम गोपाल यादव के बीच जो उठापटक शुरू हुई, उसके चलते पार्टी को यूपी में सत्ता से हाथ धोना पड़ा। वर्ष 2016 में तो मामला यहां तक पहुंच गया था कि मुलायम सिंह ने अखिलेश यादव और रामगोपाल यादव दोनों को पार्टी से बाहर निकाल दिया था हालांकि 24 घंटे में उन्हें अपना फैसला बदलना पड़ा।

राज ठाकरे वर्सेज उद्धव ठाकरे (शिव सेना)
किसी जमाने में राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे दोनों ही शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के दो हाथ हुआ करते थे। पार्टी और महाराष्ट्र की सत्ता पर अधिकार को लेकर दोनों भाईयों में छिड़ी लड़ाई ने राज ठाकरे को बाहर का रास्ता दिखा दिया। बाद में राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया परन्तु वह महाराष्ट्र में कभी दल के रूप में नहीं उभर सके। जबकि उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के रूप में आज सत्ता संभाल रहे हैं।

तेलेगु देशम पार्टी (TDP)
वर्ष 1982 में कांग्रेस पार्टी का विरोध करने के लिए तेलेगु अभिनेता तथा नेता एनटी रामाराव ने तेलेगु देशम पार्टी की स्थापना की थी। वह दो बार मुख्यमंत्री भी चुने गए। परन्तु जल्दी ही वे परिवार की आपसी घात का शिकार हो गए। उनके दामाद चन्द्रबाबू नायडू ने जल्दी ही पार्टी का अध्यक्ष पद अपने हाथों में ले लिया और पार्टी को चलाने लगे। इसके बाद रामाराम परिवार का सितारा डूबता चला गया और पार्टी पूरी तरह से नायडू के इशारों पर चलने लगी। आगे चल कर नायडू आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने जबकि रामाराम के पुत्र नंदामुरी बालाकृष्णा एवं पौत्र एनटी रामाराव जूनियर को राजनीति में असफलता मिली। हालांकि बालाकृष्णा आंध्रप्रदेश से राज्यसभा सांसद है।

द्रविड मुन्नेत्र कड़गम (DMK)
एम करुणानिधि ने पार्टी की स्थापना करते वक्त कभी नहीं सोचा था कि उन्हें अपनी ही संतानों में से किसी एक का पक्ष लेने के लिए विवश होना पड़ेगा परन्तु सत्ता की लालसा के चलते उनके दोनों पुत्रों स्टालिन और अलागिरी के बीच संघर्ष हुआ। अंतत: अलागिरी को स्टालिन के विरुद्ध बयान तथा पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल होने के कारण पार्टी से निकाल दिया गया। उनकी बहन कनिमोझी भी सत्ता की दौड़ में शामिल थी लेकिन 2G घोटाले में शामिल होने के कारण वह भी पीछे रह गई और आखिरकार स्टालिन ने हाल ही हुए विधानसभा चुनावों में भारी बहुमत हासिल कर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली।