
woman touching the pinnacle of possibilities,woman touching the pinnacle of possibilities
अगर बीसवीं सदी स्त्री अस्मिता और उसके विमर्श की सदी रही है तो 21 वीं सदी उसकी स्वतंत्रत सत्ता के व्यापक परिदृश्य की सदी है। आज यह कहने में कोई गुरेज नहीं कि व्यापक सामाजिक भूमिका और जीवन के एक.एक क्षेत्र में स्त्री ने अपनी स्वतंत्र पहचान मुकम्मल कर ली है। पिछली सदी तक अपनी स्वतंत्र सत्ता के रूप में जो स्त्री अपवाद उदाहरणों के रूप में प्रस्तुत की जा रही थीए आज इस नयी सदी की दहलीज पर उसी स्त्री के सामूहिक पदचाप सुनाई देने लगे हैं, लेकिन उसके साथ ही यह एक अनिवार्य सच्चाई है कि सम्पूर्ण मानव आबादी की संख्या में आज भी वह बहुत कम मात्रा में ही सही, लेकिन ओझल नहीं है। बरास्ते आत्म निर्भरता स्त्री सशक्तीकरण ने अपनी नैतिक विजय का एक सुदीर्घ पथ प्रशस्त किया है और इसी बीच उसकी असंख्य यातनाओं के समाचार न्यूज चैनलों, समाचार पत्रों में खूब दिखाई दिए हैं। जब कभी इसका इतिहास लिखा जाएगा तब हमारी आने वाली पीढियां शायद ही सफर के इस खौफनाक अंधेरे का पता लगा सकेंगी। एक पितृसत्तात्मक समाज से स्त्री केन्द्रित समाज तक के सफ र में अंधेरी यातनाओं के अनेक किस्से शायद ही कभी इस बर्बरता के साथ उनके समक्ष बयान किये जा सकेंगे। यह विश्वास करने में मुश्किल है कि अभी कुछ दिन पहले चि_ियां लिखने-पढऩे के लिए स्त्रियों को स्कूलों के बंद दरवाजे खोले गए थे और वहां उनकी डरी संकुची रत्तीभर उपस्थिति ने ही संभावनाओं के अनगिनत पट खोल डाले।आज उसी स्त्री ने साहित्य और कला से लेकर विज्ञान के नाना क्षेत्रों में कीर्तिमान अपने कृतिमान रच दिए। अब वह सिर्फ करुणा या दया की प्रतिमूर्ति श्रद्धा भर नहीं, एक ऐसी सहकर्मी है जिसने अपनी मुनासिब जगह अपने आप बनायी है। विकास की इस मंजिल की ओर बढ़ती स्त्री को आज भी अनेक दुश्वारियों के बीच रहना और जीना पड रहा है। उससे यह आम अपेक्षा की जाती है कि वह एक साथ कई शताब्दियों में जीती रहे।घर के भीतर उससे मध्यकालीन स्वरूप की अपेक्षा की जाती है तो कार्यस्थल पर उस कमनीय जादुई डेढ़ इंच मुस्कान की,जो गाहे-बगाहे सहकर्मी पुरुष अहंकार के रास्ते में रोड़ा न बनने पाए वरना...।
प्रसिद्ध लेखिका उषा प्रियंवदा की एक अचर्चित सी कहानी है आधा शहर। यह कहानी विश्वविद्यालय की एक स्त्री प्रोफेसर की कहानी है।विश्वविद्यालय का माहौल, जहां समाज की यह स्वाभाविक अपेक्षा बनी हुई है कि वहां समाज के सबसे पढ़े लिखे और संवेदनशील लोग रहते हैं, लेकिन वहीं कहानी की नायिका तमाम तरह के कलुषित अफ वाहों का जघन्यतम शिकार होती चली जाती है। कामकाजी महिलाओं के अकेलेपन की एक बेजोड़ कहानी है आधा शहर। ऐसे ही तमाम मुश्किलातों के बीच चुपचाप रहकर असहनीय सन्नाटे और अकेलेपन का दंश झेलती आज की स्त्री लगातार अपनी पहचान खोज रही है।
Published on:
07 Mar 2024 07:37 pm
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