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Kaagaz Movie Review : सिस्टम की कमजोरियों के खिलाफ बेहतर फिल्म हो सकती थी ‘कागज’, ढीली पटकथा ने खेल बिगाड़ा

उत्तर प्रदेश के लाल बिहारी 'मृतक' के संघर्ष पर आधारित फिल्म संजीदा विषय को कुछ ज्यादा ही हल्का-फुल्का बना दिया गया पंकज त्रिपाठी छाए रहे, क्लाइमैक्स तक आते-आते लडख़ड़ा गई कहानी

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Kaagaz Movie Review : सिस्टम की कमजोरियों के खिलाफ बेहतर फिल्म हो सकती थी 'कागज', ढीली पटकथा ने खेल बिगाड़ा

Kaagaz Movie Review : सिस्टम की कमजोरियों के खिलाफ बेहतर फिल्म हो सकती थी 'कागज', ढीली पटकथा ने खेल बिगाड़ा

-दिनेश ठाकुर
सुदर्शन फाकिर का शेर है- 'किसी रंजिश को हवा दो कि मैं जिंदा हूं अभी/ मुझको एहसास दिला दो कि मैं जिंदा हूं अभी।' अगर किसी को सरकारी कागजात में मृत मान लिया गया हो, वह कैसे साबित करे कि वह जिंदा है? सुनने में अजीब लग सकता है, लेकिन यह आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) के एक गांव के लाल बिहारी की आपबीती है। रिश्तेदारों ने जमीन हड़पने के लिए अफसरों से मिलीभगत कर उसे सरकारी कागजात में मृत घोषित करवा दिया। खुद को जिंदा साबित करने में लाल बिहारी को 18 साल लग गए थे। वह लाल बिहारी 'मृतक' के नाम से मशहूर है। इस शख्स की अजीबो-गरीब दास्तान पर सतीश कौशिक ( Satish Kaushik ) ने 'कागज' ( Kaagaz Movie ) बनाई है। तीखे और तल्ख अंदाज वाली यह फिल्म गुरुवार को ओटीटी प्लेटफॉर्म पर आई है।

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जिंदा 'मृतक' की छटपटाहट
'कागज' देखते हुए कृष्ण चंदर की कहानी 'जामुन का पेड़' रह-रहकर याद आती रही। उसमें एक आदमी पर जामुन का पेड़ गिर जाता है। वह पेड़ के नीचे दबा छटपटाता रहता है। पेड़ कौन हटाएगा, इसको लेकर कई सरकारी महकमों में फाइल घूमती रहती है। लाल फीताशाही हमारे सिस्टम का ऐसा वायरस है, जिसकी वैक्सीन अब तक तैयार नहीं हुई है। सरकारी कागजात में मृत घोषित किया जा चुका 'कागज' का नायक भरत लाल (पंकज त्रिपाठी) ( Pankaj Tripathi ) भी इस सिस्टम से जूझ रहा है। खुद को जिंदा साबित करने के लिए वह डीएम से पीएम तक शिकायत भेज चुका है। थाने, अदालत से विधानसभा तक के चक्कर काट चुका है। गांव के बच्चे उसे 'भूत' कहकर चिढ़ाते हैं। सरकारी महकमों में उसे 'सिरफिरा' बताया जाता है।

गैर-जरूरी नाच-गाने और भागदौड़
कॉमेडी पर सतीश कौशिक की अच्छी पकड़ है। 'कागज' की बुनियादी लय कॉमेडी ही है। लेकिन इस कॉमेडी में सीधे-सादे देहाती भरत लाल की पीड़ा और परेशानियां भी करवटें ले रही हैं। बीच-बीच में नाच-गानों और गैर-जरूरी भागदौड़ के दृश्यों के दौरान जरूर लगता है कि संजीदा विषय को सतीश कौशिक कुछ ज्यादा ही हल्का-फुल्का बना रहे हैं। क्लाइमैक्स तक आते-आते फिल्म पर उनकी पकड़ भी ढीली पड़ गई। आखिरी रीलों को वह बाकी हिस्से की तरह संभाल पाते, तो सिस्टम की कमजोरियों को उजागर करने वाली यह मुकम्मल फिल्म होती।

देहाती बैंड मास्टर का जलवा
एक्टिंग के मामले में 'कागज' पूरी तरह से पंकज त्रिपाठी की फिल्म है। देहाती बैंड मास्टर के किरदार में वह पानी में चंदन की तरह घुल-मिल गए हैं। शुरू-शुरू में जब वह साजिंदों को 'बहारों फूल बरसाओ' की धुन की प्रेक्टिस करने की हिदायत देते हैं, तो कोई कह नहीं सकता कि यह शख्स गांव का बैंड मास्टर नहीं है। उनकी पत्नी के किरदार में मोनल ठाकुर ठीक-ठाक हैं। मीता वशिष्ठ काफी अर्से बाद नजर आईं। उनके साथ 'ये क्या आने में आना है' वाला मामला रहा। लम्पट वकील के किरदार में सतीश कौशिक भी पर्दे पर आते-जाते रहे। शायद वह निर्देशन में इतने व्यस्त थे कि एक्टिंग पर ज्यादा ध्यान नहीं दे पाए।

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सीन जरूरत से ज्यादा लम्बे, संवाद धारदार
फिल्म की पटकथा पर कुछ और मेहनत की दरकार थी। कुछ सीन जरूरत से ज्यादा लम्बे हैं। फिल्म की रफ्तार में टांग अड़ाते हैं। संवाद जरूर धारदार हैं। मसलन एक जगह पंकज त्रिपाठी कहते हैं- 'राम के लिए रावण को मारना आसान था, क्योंकि उसके दस सिर दिखते तो थे। सिस्टम के जाने कितने सिर हैं, नजर ही नहीं आते।' अदालत के एक सीन में वह दलील देते हैं- 'आप कागज की सुनेंगे कि इंसान की? दिल इंसान के सीने में धड़कता है कि कागज में? बाल-बच्चे और मेहरू कागज के होते हैं कि इंसान के?' यही धार अगर पटकथा में होती तो 'कागज' और बेहतर फिल्म हो सकती थी। फिर भी यह आम मसाला फिल्मों से थोड़ी हटकर है। उस सिस्टम की संवेदनहीनता को कुछ हद तक बेनकाब करती है, जिससे हर आम और खास को कभी न कभी जूझना पड़ता है।

० कलाकार : पंकज त्रिपाठी, मोनल गज्जर, मीता वशिष्ठ, सतीश कौशिक, अमर उपाध्याय, नेहा चौहान, विजय कुमार, ब्रजेन्द्र काला आदि।