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सम्पूर्ण मानव जाति पर कलयुग का प्रभाव

जैन मुनि आचार्य चंद्राननसागरसूरीश्वर ने कहा -धर्म एक शुभ क्रिया है, जिसे करने से मनुष्य के जीवन में अच्छाइयों, सत्कर्मों का आगमन होता है -संयुक्त परिवार आज वक्त की जरूरत बनी है -माता-पिता के धार्मिक आचरण के कारण भी बच्चों में धार्मिक प्रवृतियां आती हैं

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मुंबई

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Binod Pandey

Jun 14, 2019

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सम्पूर्ण मानव जाति पर कलयुग का प्रभाव

सीमा पारीक
मुंबई. समाज में हर ओर धन-सम्पत्ति के वर्चस्व से मानवता व रिश्ते की बुनियाद कमजोर पडऩे लगी है। प्रेम-भाईचारे की जगह ईष्र्या व वैमनस्य ने ले लिया है। निराशा के इस घोर वातावरण में भी प्रकाश की ज्योत है। इसी मुद्दे पर पत्रिका ने जैन मुनि आचार्य चन्द्राननसागरसूरीश्वर से बातचीत की। उन्होंने जीवन जीने की कला के साथ ही अन्य कई विषयों पर खुलकर बातचीत की जिस पर अमल कर वास्तिविक सुख हासिल किया जा सकता है। आठ साल की बाल्यकाल में दीक्षा लेने वाले जैन मुनि ने अपने 50 वर्षों की दीक्षा काल में मुंबई में लगभग 115 जैन मंदिरों और मारवाड़ में 70 से 80 मंदिरों की प्राण प्रतिष्ठा करवाई है। कई राज्यों में महावियालयों की स्थापना के अलावा गौशालाओं व अस्पतालों का निर्माण करवाया है। हाल में उन्होंने दहिसर एक्सप्रेस हाइवे के समीप 25 एकड़ जमीन में श्री नाकोड़ा दर्शन धाम नामक तीर्थ धाम की स्थापना का कार्य पूर्ण करवाया है। प्रस्तुत है उनसे बातचीत के अंश-

धर्म व पुण्य में क्या अंतर है, हम किस तरह अपने जीवन को सुखमय बना सकते हैं?

धर्म एक शुभ क्रिया है, जिसे करने से मनुष्य के जीवन में अच्छाइयों, सत्कर्मों का आगमन होता है। इसके जरिए जीवन में सुख-शांति और आनंद की अनुभूति होती है। यह आनंद ही पुण्य कहलाता है, जीवन में सद्भावना से किया गया हर कार्य धर्म है। इस धर्म का फल ही पुण्य कहलाता है, व्यक्ति को किसी ना किसी रूप में हमेशा धर्म करना चाहिए जिसका प्रभाव उसके विपरीत परिस्थियों में ढाल बनकर रक्षा करती है। रुपए पैसे भौतिक सुख दे सकते हैं, पर वास्तिविक सुख के लिए परोपकार जरूरी है। स्वार्थ त्यागे, परमार्थ की ओर बढ़े।

आज के कठिन दौर में बच्चों को संस्कार कैंसे दे?

बच्चों को धार्मिक कार्य की प्रेरणा दें। उनमें धार्मिक पुस्तक पढऩे की आदत डालें। अपनी व्यस्तता की वजह से बच्चों को कतई नजरअंदाज नहीं करें, उन पर विशेष ध्यान दें। संयुक्त परिवार की प्रथा खत्म सी हो गई है। युवा पीढ़ी अधिक स्वतंत्रता पाकर परिवार से दूर होकर अवसाद का शिकार हो रही है। धर्म से विमुख युवा वर्ग में मार्गदर्शन का अभाव है। संयुक्त परिवार आज वक्त की जरूरत बनी है।

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छोटे बच्चे भी दीक्षा लेते हैं, उन्हें कहां से प्रेरणा मिलती है?

संघ का रंग होने की वजह से आज जैन धर्म के परिवारों में बच्चे और युवा छोटी उम्र में दीक्षा ले रहे हैं। माता-पिता के धार्मिक आचरण के कारण भी बच्चों में धार्मिक प्रवृतियां आती हैं। धर्म गुरुओं के प्रवचन और प्रेरणा से वे प्रभु भक्ति की ओर अग्रसर हो जाते हैं, इसके बाद भी कुछ लोगों की नियति ईश्वर की इच्छा अनुसार भी जनकल्याण के लिए लिखी होती है, जो दीक्षा लेकर धर्म प्रचारक बनते हैं।

जैन धर्म में संथारा प्रथा क्या है, इससे कैसे मोझ प्राप्ति होती है?
जैन धर्म के शास्त्रों मैं भी संथारा का जिक्र है। पर यह कोई प्रथा या आदेश नहीं है, जिसे व्यक्ति को करना अनिवार्य है। ये व्यक्ति की इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। शास्त्रों के अनुसार व्यक्ति जीवन के सर्व भौतिक और पारिवारिक सुखों को भोग कर अपने अंत काल में ईश्वर के चरणों मैं समर्पित हो जाए वही अवस्था समाधि है, वही अवस्था जैन धर्म मैं संथारा कहा गया है। संथारा केवल ईश्वर की साधना है जो व्यक्ति की अपने रुचि से ईश्वर के प्रति समर्पित होने का भाव है।

प्रार्थनाएं किस तरह विपरीत परिस्थितियों में चमत्कार करती हैं?

जिस तरह बैंक मैं धन जमा करके आजीवन उस धन पर ब्याज सहित उसका उपभोग होता है, उसी तरह जीवन में ईश्वर से की गई प्रार्थनाओं का भी महत्व है। हम सभी दिन के 24 घंटों में मात्र 24 मिनट ईश्वर को नियम से जरूर याद करें। भक्ति ही परमात्मा और व्यक्ति के बीच एक मजबूत पुल का काम करती है।