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राजस्थान में अंग्रेजी बबूल बना रोजगार का जरिया, कोयला बनाकर कमा रहे मुनाफा

रास्ते कभी खत्म नहीं होते, बस चलने का हौसला होना चाहिए। जंगली कांटों से लाखों रुपए की कमाई कर कुछ ऐसा ही कर दिखाया है कोयला बनाने वाले व्यापारियों ने!

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मोतीराम प्रजापत @ चौसला (नागौर)। रास्ते कभी खत्म नहीं होते, बस चलने का हौसला होना चाहिए। जंगली कांटों से लाखों रुपए की कमाई कर कुछ ऐसा ही कर दिखाया है कोयला बनाने वाले व्यापारियों ने! कुचामन जिले के जाब्दीनगर गांव में तीन साल तक हनुमानगढ़ के जयप्रकाश और राजेश जाट ने अंग्रेजी बबूलों के टेंडर के जरिए ठेके पर लेकर अच्छा मुनाफा कमाया। जयपुर जिले के भादवा व झोपक कोरसीना गांव में भी विलायती बबूल (जूलीफोरा) से कोयला तैयार किया जा रहा है।

पारंपरिक विधि का उपयोग

इस मशीनरी युग में कोयला बनाने के लिए पारंपरिक विधि का उपयोग किया जाता है। व्यापारियों का कहना है कि इसमें मेहनत अधिक लगती है, लेकिन कोयला अच्छी गुणवत्ता वाला तैयार होता है।

ऐसे होता है भट्टियों का निर्माण

श्रमिकों ने बताया, भट्टी को ईंटों से एक खास तरीके से गोल चिनाई करते हुए और बीच में हल्के छेदों को छोड़ते हुए तैयार किया जाता है। इसके एक तरफ भूमि के साथ अर्ध दीर्घ वृताकार आकार या आयताकार आकार का एक ऐसा रास्ता होता है जिसमें आदमी बैठकर आसानी से अंदर जा सके। ईंटों की चिनाई के बाद इसे मिट्टी से अंदर और बाहर दोनों ओर से छोटे छेदों को छोड़ते हुए लीप दिया जाता है। गुंबदनुमा इस आकृति के बिलकुल शीर्ष पर एक हल्का बड़ा छेद होता है जो आग सुलगाने के लिए रखा होता है।

10 दिन की प्रक्रिया

कोटा, भीलवाड़ा और बारां के श्रमिकों ने बताया, पहले बबूल को जड़ से उखाड़ते हैं, फिर कुछ दिन धूप में सुखाते हैं। इसके बाद टहनियां व कांटेदार लकड़ी को अलग कर देते हैं। भट्टी में जड़ों को डालकर आग लगा दी जाती है और भट्टी को बंद कर दिया जाता है। और फिर आठ से 10 दिन में कोयला बनकर तैयार हो जाता है। एक भट्टी में तीन से चार क्विंटल कोयला बनता है।

इनका कहना है

नावां विधानसभा क्षेत्र में गोविन्दी के डाबसी में असंय कंटीले बबूल उगे हैं। जिन्हें ग्रामीणों की सहमति से कोयला बनाने वाले ठेकेदार को टेंडर पर दिया है।

रामप्रसाद मीना, ग्राम विकास अधिकारी, गोविन्दी मारवाड़