
Bihar Assembly Elections: बिहार में 2025 के अंत में होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी जोर पकड़ रही है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, पूर्व उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह समेत तमाम बड़े नेता चुनावी रणनीति में जुट गए हैं। हालांकि इस सियासी खेल में एक और अहम पहलू है - ‘वोटकटवा’ पार्टियां, जो भले ही सत्ता में न आएं, लेकिन चुनावी गणित को उलटने या बिगाड़ने की ताकत रखती हैं। ये पार्टियां भले ही विधानसभा में बड़ी संख्या में सीटें न जीतती हों, लेकिन इनका स्थानीय प्रभाव और जातीय समीकरणों पर पकड़ बड़ी पार्टियों के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। कई बार ये दल चुनावी गठबंधनों में अहम रोल निभाकर 'किंगमेकर' बन जाते हैं।
‘वोटकटवा’ एक राजनीतिक शब्द है, जिसका इस्तेमाल उन छोटी या मध्यम क्षेत्रीय पार्टियों के लिए किया जाता है जो किसी खास वर्ग, समुदाय या क्षेत्र में मजबूत पकड़ रखती हैं। ये पार्टियां खुद सरकार नहीं बना पातीं, लेकिन बड़ी पार्टियों के वोट बैंक में सेंध लगाकर उन्हें नुकसान पहुंचा सकती हैं। चुनावी मुकाबले में यह कुछ सीटों पर हार-जीत का अंतर तय कर सकती हैं और कई बार ‘किंगमेकर’ की भूमिका में भी आ जाती हैं।
बिहार की राजनीति में ऐसे कई दल हैं, जो सीमित जनाधार के बावजूद निर्णायक भूमिका निभाते हैं। आइए जानते हैं ऐसे 8 प्रमुख वोटकटवा दलों के बारे में…
रामविलास पासवान की विरासत वाली पार्टी अब दो हिस्सों में बंटी हुई है - चिराग पासवान की एलजेपी (रामविलास) और पशुपति पारस की अलग गुट वाली एलजेपी। चिराग की पार्टी को युवाओं और दलितों में समर्थन हासिल है। वे एनडीए से बाहर होकर भी बीजेपी के समर्थन में लड़ सकते हैं, जिससे जेडीयू और आरजेडी को नुकसान हो सकता है।
पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की पार्टी, जो मुसहर और अन्य महादलित वर्गों में असर रखती है। मांझी की भूमिका जेडीयू और बीजेपी के समीकरणों में अक्सर ‘टाई ब्रेकर’ की तरह रही है।
मुकेश सहनी की अगुआई वाली यह पार्टी निषाद समुदाय का प्रतिनिधित्व करती है। भले ही VIP को बहुत ज्यादा सीटें न मिलती हों, लेकिन पूर्वी बिहार में कई सीटों पर इनका प्रभाव निर्णायक हो सकता है।
उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी अब जेडीयू में विलय हो चुकी है, लेकिन कुशवाहा खुद एक ‘फ्लोटिंग फैक्टर’ की तरह बार-बार पाला बदलते रहते हैं। उनकी छवि आज भी कोइरी-कुशवाहा वोटरों के नेता के तौर पर है।
असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी सीमांचल क्षेत्र में मुस्लिम वोटरों पर असर डालती है। 2020 में पार्टी ने पांच सीटें जीती थीं और अब भी कांग्रेस व आरजेडी को नुकसान पहुंचाने की स्थिति में है।
राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव की पार्टी युवाओं और आक्रोशित मतदाताओं में पैठ रखने की कोशिश करती है। उनकी सामाजिक सक्रियता और विरोधी तेवर उन्हें अलग पहचान देते हैं, हालांकि सीटें बहुत नहीं मिली हैं।
वामपंथी राजनीति की यह मजबूत आवाज खासकर सारण, भोजपुर और गया जैसे क्षेत्रों में मजदूर और गरीब तबकों के बीच पकड़ रखती है। 2020 चुनाव में 12 सीटें जीतकर यह पार्टी आरजेडी-कांग्रेस गठबंधन की ताकत बनी थी।
उत्तर प्रदेश की राजनीति की दिग्गज मायावती की पार्टी बिहार में भी दलित और पिछड़े वर्गों में पैठ जमाने की कोशिश करती है। भले ही उनका आधार कमजोर है, लेकिन सीमावर्ती इलाकों में वोट काटने की ताकत है।
बिहार में बहुकोणीय मुकाबले की स्थिति में छोटी पार्टियों की भूमिका बढ़ जाती है। कई सीटों पर हार-जीत का अंतर 1000 से कम वोटों का होता है, जहां ये पार्टियां निर्णायक साबित होती हैं। इसलिए चाहे बीजेपी-जेडीयू गठबंधन हो या आरजेडी-कांग्रेस महागठबंधन, हर किसी को इन ‘वोटकटवा’ दलों से तालमेल बनाना या संभलकर रहना जरूरी हो जाता है। इन दलों को नजरअंदाज करना किसी भी बड़ी पार्टी के लिए राजनीतिक भूल हो सकती है। इसलिए 2025 का चुनाव इन ‘छोटे दिग्गजों’ के इर्द-गिर्द भी खूब घूमेगा।
Published on:
09 Apr 2025 03:20 pm
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