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मनमोहन सिंह: कैसे हारे थे जीवन का एकमात्र लोकसभा चुनाव, जानिए कहानी   

Manmohan Singh: पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह जिस तारीख को जन्मे, उसी तारीख को दुनिया से विदा भी हुए। वह 26 सितंबर 1932 को जन्मे थे और 26 दिसंबर 2024 को दुनिया से विदा हुए। उन्होंने जिंदगी के साथ राजनीति में भी लंबी पारी खेली।

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Manmohan Singh

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Manmohan Sing Death: पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) जिस तारीख को जन्मे, उसी तारीख को दुनिया से विदा भी हुए। वह 26 सितंबर 1932 को जन्मे थे और 26 दिसंबर 2024 को दुनिया से विदा हुए। उन्होंने जिंदगी के साथ राजनीति में भी लंबी पारी खेली। करीब 33 साल राज्‍यसभा सांसद रहने के बाद इस साल तीन अप्रैल को वह रिटायर हुए थे। अपने लंबे राजनीत‍िक जीवन में उन्होंने केवल एक बार लोकसभा का चुनाव लड़ा था। परिवार की इच्छा के ख़िलाफ, सोनिया गांधी के कहने पर उन्हें एक तरह से मजबूरी में वह चुनाव लड़ना पड़ा था। इसका अनुभव उनके लिए अच्छा नहीं रहा। शायद इसीलिए दोबारा वह कभी लोकसभा चुनाव के मैदान में नहीं उतरे।

1999 के लोकसभा की बात है

यह बात है 1999 के लोकसभा चुनाव की। सोनिया गांधी ने दक्षिण दिल्ली लोकसभा सीट का टिकट मनमोहन सिंह को दे दिया। आज कल के नेता भले ही चुनाव का टिकट पाने को लालायित रहते हैं, पर मनमोहन सिंह तो मूलतः नेता थे ही नहीं। उनकी चुनाव लड़ने में जरा भी दिलचस्पी नहीं थी। पत्नी गुरशरण कौर भी इसके खिलाफ थीं। लेकिन, ‘मैडम’ का आदेश था। टालना भी मुश्किल था। सो, पत्नी की इच्छा के विरुद्ध जाकर और अपना मन मार कर मनमोहन सिंह चुनावी मैदान में उतर गए। मनमोहन सिंह को लग रहा था कि उन्हें पार्टी ने उम्मीदवार बनाया है तो पार्टी के सभी नेता-कार्यकर्ता स्वाभाविक रूप से उनके साथ ही रहेंगे। पर, राजनीति की चाल तो उन्हें मालूम ही नहीं थी।

पार्टी की तरफ से मिले थे 20 लाख रुपये

पार्टी की ओर से मनमोहन सिंह को चुनाव लड़ने के लिए बीस लाख रुपये दिए गए थे। उन्हें लग रहा था कि इतनी रकम तो काफ़ी है, पर उनके प्रचार प्रबंधक हरचरण सिंह जोश ने जब राजनीति की हकीकत से उनका सामना कराया तो उनके होश फाख्ता हो गए। जाहिर है, ‘ डॉक्टर साहब’ (मनमोहन सिंह के करीबी उन्हें यही पुकारते थे) को चुनाव हारना ही था। वह हार ही गए। पर जोश ने एक इंटरव्यू में इसके पीछे का किस्सा बताते हुए कहा था की मनमोहन सिंह हारे नहीं थे, उन्हें हराया गया था। जोश ने ‘कारवां’ मैगजीन को 2011 में उस चुनाव की अंदरूनी कहानी बताई थी। जोश ने कहा था- कांग्रेस की जीत सुनिश्चित थी। दक्ष‍िण दिल्‍ली का मुकाबला ‘डॉक्टर साहब’ बनाम ‘कारसेवक’ का हो गया था।

BJP से विजय कुमार मल्होत्रा थे प्रत्याशी

भाजपा से विजय कुमार मल्‍होत्रा उम्‍मीदवार थे। उनका चांसजीरो था। उस चुनाव से पहले के विधानसभा चुनाव में 14 में से 10 सीटें कांग्रेस ने जीती थीं। सोनिया गांधी ने खुद मनमोहन सिंह को टिकट दिया था, लेकिन पार्टी ने उन्हें बाहरी उम्मीदवार माना और कार्यकर्ताओं का समर्थन उन्हें नहीं मिला। जोश का कहना था कि मनमोहन सिंह को पार्टी की ओर से जो बीस लाख रुपये मिले थे, वे बाक़ी उम्मीदवारों की तुलना में ज़्यादा थे। पर उन्हें लगता था कि विधायक-पार्षद बिना पैसों के उनकी मदद कर देंगे और उन्हें जिताने के लिए काम करेंगे! उधर पैसे ख़त्म हो रहे थे। पैसे देने वालों की कमी नहीं थी।

उद्योगपति कलकत्ता से पैसे लेकर आते थे, पर मनमोहन सिंह उनसे मिलते ही नहीं थे। जोश के यह बताने के बाद भी नहीं कि कम से कम एक करोड़ रुपये चाहिए होंगे और पास का पैसा खत्म हो रहा है। एक दिन जोश ने पत्नी और बेटी दमन सिंह के सामने ही सारी बात दोहराई। फिर भी मनमोहन सिंह राजी नहीं हुए। तब जोश ने कह दिया- डॉक्टर साहब, हम चुनाव हार जाएंगे। तब जाकर मनमोहन सिंह राजी हुए थे। जोश ने‘कारवां’ पत्रिका को बताया था कि लोग डॉक्टर साहब से मिलने आते और कहते- कुछ सेवा बताइए मुझे. डॉक्टर साहब उनसे कहते- बस आपका आशीर्वाद चाहिए और कुछ नहीं. वे अंदर के कमरे में मैडम (गुरशरण) को पैसे पकड़ा देते। अब पैसे की कमी नहीं थी, लेकिन कार्यकर्ताओं में जोश भरने और मतदाताओं को अपनी ओर खींचने की कला की कमी अब भी थी। कांग्रेस के कई नेताओं और उनके समर्थक पार्षदों ने भी उन्हें हराने के लिए काम किया। मनमोहन सिंह चुनाव हार गए। 2004 में एक बार फिर उन्हें लोकसभा चुनाव के टिकट की पेशकश हुई, लेकिन उन्होंने तौबा कर लिया।

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