
Students should more creative: कथासम्राट मुंशी प्रेमचंद (Kathakar Munshi Premchand) के एक चर्चित उपन्यास 'कर्मभूमि' का नायक अमरकांत का एक संवाद कि, "जीवन को सफल बनाने के लिए शिक्षा की जरूरत है, डिग्री की नहीं। हमारी डिग्री है हमारा सेवाभाव, हमारी नम्रता, हमारे जीवन की सरलता। अगर यह डिग्री नहीं मिली, हमारी आत्मा जागृत नहीं हुई तो कागज की डिग्री व्यर्थ है" जीवन में शिक्षा के कई सारे आयामों को खोलता है। चाहे गांधी हों, टैगोर या प्रेमचंद सभी इस बारे में एकमत हैं कि बच्चों में रचनात्मकता या कहें रचनात्मक कौशलों का विकास होना ही चाहिए। हो सकता है कि किसी बच्चे की रचनात्मकता की 'डिमांड' हमारे तय मानकों पर खरी न उतर रही हो। इसके खतरे हैं लेकिन ऐसे खतरे तो हमें उठाने ही पड़ेंगे तभी हम विवेकशील, चिंतनशील,प्रगतिशील सोच से लैस समाज बना पाएंगे। नवोन्मेष को मान्यता दे सकेंगे तथा अपनी विरासत की प्रगतिशील परंपरा को चुनते हुए एक न्यायसंगत समाज बना पाएंगे।
हम जो जीवन जीते हैं, उसमें सामान्यतः एक तयशुदा पैटर्न पर कार्य करना अधिकतर आसान होता है। उसमें हम आरामदायक महसूस करते हैं। प्रायः इसे अपनाया भी जाता है क्योंकि लीक पर चलना सहज व सरल है। परन्तु ऐसा भी होता है कि हम हमारे आसपास कुछ जुझारू व्यक्तियों को भी देखते हैं जो विभिन्न परिस्थितियों में कुछ हटकर अपने अनुसार कार्य करते हैं। स्वयं के लिए नए रास्ते बनाते हैं व उन रास्तों पर चलने की कोशिश करते हैं । हालाँकि यह थोड़ा कठिन होता है। यह कठिनाई ही रचनात्मकता कहलाती है।
जैसे जो लोग अच्छी कहानी लिख सकते हैं या सुंदर चित्र बना सकते हैं, उन्हें रचनात्मक माना जाता है। लेकिन यहाँ जानने व समझने वाली बात यह है कि असल में सभी लोग रचनात्मक होते हैं। दरअसल, रचनात्मकता मनुष्य होने की सबसे महत्वपूर्ण विशेषताओं में से एक है। यह उन मुख्य गुणों में से एक है जो हमें व्यक्ति के रूप में सफल व संघर्षशील बनाता है। एक रचनात्मक विचार यानी वह विचार, जो एक विशेष परिवेश में नवीन और उपयोगी या प्रभावशाली दोनों हो। फ्लेहर्टी का कहना है कि यह बात व्यवसाय, आईटी, विज्ञान और गणित पर भी उतनी ही लागू होती है जितनी कि उन क्षेत्रों पर जिन्हें हम आमतौर पर "रचनात्मक" क्षेत्र मानते हैं, जैसे कि कथा लेखन, कला या रंगमंच।
हमें रचनात्मक होने पर जोर इसलिए भी देना चाहिए क्योंकि विभिन्न शोधों से यह भी पता चला है कि मस्तिष्क के वे हिस्से जिनका उपयोग हम सामान्य व्यवहार के लिए सोचते समय करते हैं, रचनात्मक होते समय पूरी तरह से बंद हो जाते हैं जबकि हमारे दिमाग के अन्य हिस्से, जिनका हम प्रतिदिन उपयोग नहीं करते, वह भाग काफी सक्रिय हो जाते हैं। इससे साफ पता चलता है कि हमारे लिए रटी रटाई पद्धति पर चलने के बजाय खुद के लिए राह बनाना आवश्यक है।
यहां एक बार से फिर से प्रेमचंद को संदर्भित करूँगी। उनका एक आलेख,"बच्चों को स्वाधीन बनाओ।" इस लेख में प्रेमचंद कहते हैं कि हम बच्चों को बस एक आज्ञापालक यंत्र भर न बना दें, नहीं तो जीवन भर वह किसी आदेश, किसी आज्ञा की ही प्रतीक्षा करता रह जाएगा और कोई नवोन्मेष नहीं होगा। वह वैचारिक वितान नहीं हासिल होगा, रचनात्मक स्फीति नहीं मिलेगी। बस एक रोबोट बनाते रहेंगे।
3 से 5 वर्ष की आयु के बच्चों पर रचनात्मकता परीक्षण किया। यह वही परीक्षण था जो नासा के लिए वैज्ञानिकों और नवोन्मेषी इंजीनियरों का चयन करने के लिए किया था। उन्हीं बच्चों का 10 वर्ष की आयु में और फिर 15 वर्ष की आयु में परीक्षण किया। परिणाम चौंकाने वाले थे। जहाँ 5 वर्ष के बच्चों में रचनात्मकता 98% थी, वहीं 10 वर्ष की आयु में यह घटकर 30% रह गई और जब उनका परीक्षण 15 वर्ष की आयु में किया गया तो यह मात्र 12% थी। तो क्या यह सवाल भी उठता है कि बच्चों की दुनिया मे हम बड़ों ने शिक्षा, अनुशासन, सफलता, नम्बर, आईएएस, पीसीएस, डॉक्टर, इंजीनियर के नाम पर उसके भीतर की रचनात्मकता को, स्वतंत्र चेतना को, विचार को कहीं मार ही तो नहीं डाला? यही परीक्षण जब 280,000 वयस्कों पर किया गया तो रचनात्मकता केवल 2% थी। इस परीक्षण से हम समझ सकते हैं कि बचपन से बच्चों को ऐसा माहौल देना चाहिए जिससे कि वह खुद करके सीख सकें। इसके साथ ही परिस्थितियों से डील करने की सक्षमता को विकसित करने के लिए उन्हें आजादी देनी भी बहुत आवश्यक व महत्वपूर्ण है।
हमारी शिक्षा नीतियाँ, शैक्षिक प्रणालियाँ, कक्षा की गतिविधियाँ अक्सर हमें अलग तरीके से सोचना नहीं सिखाती हैं बल्कि निर्देशों का पालन करना और यथास्थिति का पालन करना सिखाती हैं। हम अनुशासन के नाम पर चुप रहना सिखाते हैं। हम जोर देते हैं कि चुप रहना, कम बोलना, ज्यादा प्रतिक्रिया ना करना आवश्यक है। मैंने मेरे जीवन में ही 'पिन ड्राप साइलेंस' उक्ति का खूब प्रयोग सुना है जबकि हमारा उद्देश्य लोगों को सक्रिय रूप से शामिल करना और रचनात्मक कार्य करने के लिए प्रेरित करना है।
हमें हमारे विचारों में ही परिवर्तन करना होगा। रटन विधा व हर उस अवधारणा से बचना होगा, जो हमें नया करने के प्रेरित ना करती हो। शिक्षा में इस आयाम को जोड़ना होगा और निरन्तर इस पर फोकस करना होगा कि विद्यार्थी जीवन से ही छात्र व छात्राओं को माहौल मिले। कभी कभी कठिन कार्य स्वयं को ही संपादित करने का मौका मिले। बच्चों को कक्षा से परे जीवन के लिए जो चीज़ तैयार करती है, वह है ज़्यादा रचनात्मक बनना सीखना, जिसमें कार्यों की अवधारणा और निष्पादन में लचीलापन शामिल है।
एक शोध में यह पाया है कि अगर हम अपने हाथ को अपने दिमाग से ज़्यादा तेज़ चलने दें तो रचनात्मकता की बाधाएँ गायब हो जाती हैं। रचनात्मकता सिखाने के लिए आदर्श वातावरण में ऐसे अभ्यास और तकनीकें शामिल होती हैं जो सहायक, मनोरंजक, आश्चर्यजनक होती हैं तथा उत्पाद की अपेक्षा प्रक्रिया को महत्व देती हैं। अगर हम शिक्षा के शुरुआती दौर में ही बच्चों को मौके दें तो वे जल्दी ही विशुद्ध रूप से आनंद के लिए, बातचीत के माध्यम से, आलोचनात्मक आवाज़ विकसित करना शुरू कर देते हैं और अपने दोस्तों के साथ साझा करने के लिए अपनी सोच को अधिक ठोस रूप में प्रस्तुत करना शुरू कर देते हैं।
ऐसे में रीडिंग क्लब, आसपास घूमना व सर्वेक्षण करना, विभिन्न गतिविधियों को बच्चों की सर्वाधिक मदद से आयोजित करवाना, पाठ्यक्रम व दैनिक कार्यो में उनकी भूमिका को बढ़ाना, घर के छोटे-छोटे दैनिक कार्यों को सम्पादित करवाने में उनकी मदद लेना, घर की सज्जा, छोटे लेनदेन, दैनिक उपयोग हेतु विभिन्न सामग्रियों की खरीद आदि में बच्चों को सम्पूर्ण अवसर देने से वे स्वयं को जिम्मेदार समझते हैं व पूर्ण मनोयोग से कार्य करते हैं। इन्हीं कुछ तरीकों से रचनात्मकता की शुरुआत होती है।
यदि शिक्षक चाहते हैं कि उनके विद्यार्थी पाठक के रूप में विकसित हों तो उन्हें विद्यार्थियों पर से कुछ नियंत्रण छोड़ने के लिए तैयार रहना होगा। यदि शिक्षार्थियों को पाठ में आनंद नहीं आ रहा है तो उन्हें पढ़ना बंद करने देना चाहिए। समूहों में, स्कूल में या घर पर बातचीत, समझ और आनंद को साझा करने, पाठों को एक साथ समझने का समय अपने अनुसार कुछ नियमों व अनुशासन के साथ तय किया जा सकता है। रचनात्मक होने के लिए स्वयं के नजरिए में भी बड़े परिवर्तन की आवश्यकता है एवं यह छोटे छोटे मानसिक बदलावों से ही सम्भव है।
दुनिया रोज बनती है और अंतिम कुछ भी नहीं तो खिलने दें विचार पुष्पों को। यह दुनिया उन्हीं से बेहतर होगी। उन पुष्पों से ही सुवासित होगी। पिटी-पिटाई लीक पर कुछ नया नहीं होने वाला और नया होना रचनात्मक होने की बुनियादी शर्त है। इसमें यह भी विशेष है कि रचनात्मकता है तभी कुछ नया, कुछ सार्थक होगा जिसकी आज के समय में अत्यधिक आवश्यकता है।
(पूनम भाटिया, राज. उ. प्रा. विद्यालय, बंबाला, सांगानेर शहर, जयपुर, राजस्थान में प्रधानाध्यापक हैं। यह लेख उनके निजी विचार हैं।)
Published on:
01 Aug 2024 12:29 pm
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