
इंडिया गेट
राजधानी में इंडिया गेट परिसर में बीते दिनों नेताजी सुभाषचंद्र बोस की आदमकद मूर्ति के आसपास रोज हजारों लोग पहुंच रहे थे। एक लंबे अंतराल के बाद यहां पर कोई मेला आयोजित हो रहा था। यहां आने वाले सब नेताजी की मूर्ति को नमन करने के बाद दिव्यांगजनों की प्रतिभा, रचनात्मकता और उद्यमिता को देखकर मंत्रमुग्ध हो रहे थे। मौका था दिव्य कला मेला 2025 का। यह मेला दिव्यांगों की क्षमताओं को मुख्यधारा में लाने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है।
राजधानी दिल्ली की ठंडी हवाओं के बीच, इंडिया गेट की उस भव्य छत्रछाया के नीचे बीती 13 दिसंबर से 21 दिसंबर तक गहमागहमी रही। काफी समय से इंडिया गेट सिर्फ पर्यटकों की सेल्फी स्पॉट था, लेकिन इस बार यहां दिव्यांग नौजवानों का जोश उफान पर था। वे अपने हाथों से बने उत्पादों को प्रदर्शित कर रहे थे, और उनकी प्रेरणा? वो नेताजी सुभाष चंद्र बोस की वो विशाल मूर्ति, जो 2022 से यहां खड़ी है, जैसे कह रही हो – "तुम आजाद हो, लड़ो, जीतो!"
इंडिया गेट में मेला आयोजकों ने टेंट लगाए, स्टॉल सजाए, और बैकग्राउंड में बज रहा था वो पुराना गाना – "दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल…"। दिव्यांगजन, जिन्हें समाज अक्सर 'कमजोर' कहता है, वो यहां शेर बनकर आए थे। उनकी आंखों में चमक थी, हाथों में हुनर, और दिल में नेताजी का जज्बा। मेले के दौरान यहां हजारों लोग आए, खरीदारी की, तालियां बजाईं, और इन दिव्यांगों को हीरो बना दिया।
अब बात खुशी की। वो उत्तर प्रदेश के गोरखपुर की रहने वाली हैं। उस पर एसिड अटैक हुआ था। केस चल रहा है। वो मेले में अपने हाथ से बनी सुंदर डायरियां और बैग वगैरह बेच रही थीं। नीतू एक दृष्टिहीन दिव्यांग महिला हैं, जिन्होंने अपनी कला के माध्यम से सफलता प्राप्त की है। नीतू ने अपनी कशीदाकारी की कला को ही अपने जीवन का हिस्सा बनाया और आज वह एक प्रसिद्ध कशीदाकारी कलाकार के रूप में जानी जाती हैं। दिव्य मेला जैसे आयोजनों ने उन्हें एक मंच प्रदान किया, जहां उन्होंने अपनी कला का प्रदर्शन किया और समाज से सराहना प्राप्त की। अब वह न केवल अपनी कला को बेचती हैं, बल्कि उन्होंने अपने जैसे अन्य दिव्यांगजनों को भी प्रशिक्षित किया है।
फिर आती है मीना की कहानी। मीना, 35 साल की, जो दृष्टिबाधित है। लेकिन उसकी आंखें न होने पर भी, उसके हाथों ने दुनिया देखी है। वो राजस्थान से आई, अपने स्टॉल पर जूट की बैग्स, पर्स और दीवार पर टांगने वाली क्राफ्ट्स सजाए। "ये बैग्स ईको-फ्रेंडली हैं, मैंने ब्रेल मशीन से डिजाइन किया, वो कहती, और उसकी आवाज में वो आत्मविश्वास जो मेला की हवा से आया। नेताजी की मूर्ति के नीचे खड़ी होकर वो सोचती, "नेताजी अंधेरे में भी लड़ते रहे, मैं क्यों नहीं?" उसके उत्पादों में एक खास थीम थी – आजादी के प्रतीक, जैसे तिरंगा रंगों वाली बैग्स। एक बच्चा आया, बैग खरीदा, और बोला, "आंटी, आप सुपरस्टार हो!" मीना की आंखें नम हो गईं, लेकिन मुस्कान नहीं गई।
और कैसे भूलें संजय को? संजय, 42 साल का, जो सुन नहीं सकता, लेकिन उसकी कला बोलती है। वो महाराष्ट्र से आया, पेंटिंग्स और स्कल्पचर्स लेकर। उसके स्टॉल पर नेताजी की छोटी-छोटी मूर्तियां थीं, क्ले से बनी, इतनी जीवंत कि लगे वो बोल उठेंगी। "मैंने नेताजी की स्टैच्यू देखी, और सोचा – मैं भी कुछ ऐसा बनाऊं," वो साइन लैंग्वेज में बताता, और उसका दोस्त ट्रांसलेट करता। उसके उत्पादों में जोश था – एक पेंटिंग में दिव्यांग योद्धा दिखाए, जो बाधाओं को तोड़ रहे हैं।
मेला सिर्फ बिजनेस नहीं था, ये एक इमोशनल रोलरकोस्टर था। सुबह से शाम तक, दिव्यांगजन एक-दूसरे से मिलते, कहानियां शेयर करते। एक ग्रुप में बैठकर वो गाते – "ये देश है वीर जवानों का…"। नेताजी की मूर्ति के नीचे फोटो सेशन, जहां हर कोई पोज देता, जैसे कह रहा हो – "हम भी लड़ाके हैं!" आयोजक, जो दिव्यांग कल्याण मंत्रालय से थे, कहते, "ये मेला कोरोना के बाद पहला बड़ा इवेंट है, सालों से इंतजार था।" यहां कोई दया नहीं, सिर्फ सम्मान। ग्राहक आते, खरीदते, और जाते वक्त कहते, "तुम्हारी मेहनत ने हमें प्रेरित किया।"
दिव्य कला मेला जैसे आयोजनों के लाभ बहुआयामी हैं। सबसे पहले, ये आर्थिक सशक्तिकरण के सशक्त माध्यम हैं। भारत में करोड़ों दिव्यांगजन हैं, जिनमें से कई ग्रामीण क्षेत्रों से आते हैं और रोजगार के अवसरों से वंचित रहते हैं। ऐसे मेलों में स्टॉल लगाने का अवसर मिलने से वे अपने उत्पादों को सीधे उपभोक्ताओं तक पहुंचा सकते हैं। उदाहरण के लिए, इस वर्ष के मेले में 28वें संस्करण में सैकड़ों दिव्यांग उद्यमी भाग लेने आए, जो अपने हस्तशिल्प को बेचकर आय अर्जित कर रहे हैं। यह न केवल उनकी आर्थिक स्वतंत्रता बढ़ाता है, बल्कि उन्हें बाजार की समझ भी देता है। सरकार द्वारा प्रदान की जाने वाली सहायता, जैसे यात्रा भत्ता और स्टॉल की सुविधा, इन व्यक्तियों को बिना किसी अतिरिक्त बोझ के भाग लेने की अनुमति देती है। इन्हें रहने के लिए प्रतिदिन 2200 रुपए मिले। परिणामस्वरूप, कई दिव्यांगजन छोटे व्यवसाय स्थापित कर आत्मनिर्भर बनते हैं, जो गरीबी उन्मूलन में योगदान देता है।
दूसरा प्रमुख लाभ सामाजिक समावेशिता का है। समाज में दिव्यांगजनों के प्रति अक्सर पूर्वाग्रह और दया की भावना रहती है, लेकिन ऐसे मेलों से यह धारणा बदलती है। मेले में एक 'एक्सेसिबिलिटी सिमुलेशन जोन' जैसी सुविधाएं हैं, जहां सामान्य लोग दिव्यांगता की चुनौतियों का अनुभव कर सकते हैं। इससे सहानुभूति और समझ बढ़ती है, जो एक समावेशी समाज की नींव रखती है। दिल्ली जैसे महानगर में इंडिया गेट पर आयोजित होने से यह मेला बहुत बड़ी संख्या में पर्यटकों और स्थानीय निवासियों को आकर्षित करता रहा, जो दिव्यांग कलाकारों की प्रतिभा को देखकर प्रेरित हुए। इससे दिव्यांगजन मुख्यधारा में शामिल महसूस करते हैं और उनकी आत्मविश्वास बढ़ता है। ऐसे आयोजन विकलांगता के प्रति जागरूकता फैलाते हैं, जो शिक्षा और रोजगार नीतियों में सुधार लाते हैं। उदाहरणस्वरूप, देश में पिछले दशक में दिव्यांगजनों के लिए आरक्षण और योजनाएं बढ़ी हैं, और मेलों जैसे प्लेटफॉर्म इन योजनाओं का प्रचार करते हैं।
दिव्य कला मेला में प्रदर्शित उत्पाद भारतीय संस्कृति की विविधता को भी दर्शाते हैं – राजस्थानी हस्तकला से लेकर पूर्वोत्तर के बांस उत्पाद तक। यह न केवल सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करता है, बल्कि दिव्यांग कलाकारों को अपनी कला को वैश्विक स्तर पर ले जाने का मौका देता है। मेले में सांस्कृतिक कार्यक्रम, नृत्य और संगीत प्रदर्शन होते रहे, जो दिव्यांगजनों की बहुमुखी प्रतिभा को उजागर करते हैं। इससे युवा पीढ़ी प्रेरित होती है और दिव्यांग बच्चे अपने सपनों को साकार करने के लिए उत्साहित होते हैं। पर्यावरणीय दृष्टि से भी ये मेला लाभदायक हैं, क्योंकि कई उत्पाद पर्यावरण-अनुकूल सामग्रियों से बने होते हैं, जो सतत विकास को बढ़ावा देते हैं। कुल मिलाकर, ऐसे मेलों से समाज का सामूहिक विकास होता है, जहां हर व्यक्ति की क्षमता का सम्मान किया जाता है। यह मेला सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय के दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग (DEPwD) द्वारा आयोजित किया जा रहा है, जो दिव्यांगों की क्षमताओं को मुख्यधारा में लाने का एक महत्वपूर्ण प्रयास है। ऐसे मेलों का आयोजन न केवल दिव्यांगजनों को आर्थिक अवसर प्रदान करता है।
Published on:
24 Dec 2025 09:42 pm
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