
नई दिल्ली। उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कहा कि पचास वर्ष पहले आज के दिन विश्व का सबसे पुराना, सबसे बड़ा जीवंत लोकतंत्र गंभीर संकट से गुजऱा। यह संकट अप्रत्याशित था, जैसे कि लोकतंत्र को नष्ट कर देने वाला भूकंप हो। यह था आपातकाल का थोपना।
धनखड़ ने यह बातें उत्तराखंड के नैनीताल के कुमाऊं विश्वविद्यालय में स्वर्ण जयंती समारोह में बतौर मुख्य अतिथि कही। उन्होंने कहा कि आपातकाल के समय एक लाख चालीस हजार लोगों को जेलों में डाल दिया गया। उस समय की प्रधानमंत्री, जो उच्च न्यायालय के एक प्रतिकूल निर्णय का सामना कर रही थीं। तत्कालीन राष्ट्रपति ने संवैधानिक मूल्यों को कुचलते हुए आपातकाल की घोषणा पर हस्ताक्षर कर दिए। इसके बाद जो 21-22 महीनों का कालखंड लोकतंत्र के लिए अत्यंत अशांत और अकल्पनीय था। यह हमारे लोकतंत्र का सबसे अंधकारमय काल था। नौ उच्च न्यायालयों ने साहस दिखाते हुए मौलिक अधिकार स्थगित नहीं करने का फैसला दिया। दुर्भाग्यवश, सर्वोच्च न्यायालय धूमिल हो गई। उसने नौ उच्च न्यायालयों के निर्णयों को पलट दिया। उसने दो बातें तय की, आपातकाल की घोषणा कार्यपालिका का निर्णय है, यह न्यायिक समीक्षा के अधीन नहीं है। जबकि नागरिकों के पास आपातकाल के दौरान कोई मौलिक अधिकार नहीं होंगे। यह जनता के लिए एक बड़ा झटका था।
उन्होंने कहा कि युवाओं को इस पर चिंतन करना चाहिए और इसके बारे में जानना और समझना चाहिए। क्या हुआ था प्रेस के साथ? किन लोगों को जेल में डाला गया? युवा इस अंधकारमय कालखंड से अनभिज्ञ रह सकते हैं। बहुत सोच-समझकर सरकार ने इस दिन को ‘संविधान हत्या दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय किया। यह एक ऐसा उत्सव होगा जो सुनिश्चित करेगा कि ऐसा फिर कभी न हो। यह उन दोषियों की पहचान का भी अवसर होगा जिन्होंने मानवीय अधिकारों, संविधान की आत्मा और भाव को कुचला।
Published on:
26 Jun 2025 11:46 am
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