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जब ममता ने कहा वाजपेयी नहीं तो कोई नहीं

भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मीडिया सलाहकार रहे वरिष्ठ पत्रकार अशोक टंडन ने  अपनी पुस्तक अटल संस्मरण में किया ख़ुलासा कैसे वाजपेयी को एनडीए के नेता पद से हटाने के प्रयास को ममता ने किया था विफल

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नई दिल्ली। आज जब भारतीय जनता पार्टी और ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस एक दूसरे के खिलाफ पूरे दमख़म से जुटे हैं और एक की हर बात में दूसरे को राजनीति नज़र आती है वही एक दौर ऐसा भी था जब ममता बनर्जी भाजपा नीत एनडीए सरकार की ढाल बनी हुई थी और उन्होंने एक बार तो वाजपेयी के नेतृत्व को बदलने की कोशिशों को नाकाम करते हुए साफ़ नारा दिया था कि वाजपेयी नहीं तो कोई नहीं ।

भारत रत्न पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के मीडिया सलाहकार रहे वरिष्ठ पत्रकार अशोक टंडन ने हाल ही प्रकाशित किताब अटल संस्मरण में यह ख़ुलासा किया है।

दरअसल जब वाजपेयी सरकार गिरधर गंमाग के एक वोट से विश्वास मत हार गई थी और मुलायम सिंह के नेतृत्व में विपक्षी दलों ने सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनने के खिलाफ वीटो लगा दिया था तब एनडीए में नेता बदल कर सरकार बनाने का दावा पेश करने की बात उठी थी । ऐसे समय में ममता बनर्जी और वाइको ने इसका विरोध किया था।

अशोक टंडन अपनी किताब में लिखते हैं

तृणमूल कांग्रेस (टी.एम.सी.) नेता ममता बनर्जी, बीजू जनता दल (बीजेडी) नेता नवीन पटनायक और एम.डी.एम.के. नेता वाइको एन.डी.ए. शासनकाल के दौरान प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सबसे निष्ठावान् सहयोगियों और प्रबल समर्थकों में शामिल थे। ममता बनर्जी और वाइको तो वाजपेयी का बचाव करने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे—चाहे वह एन.डी.ए. का कोई मंच हो या फिर सार्वजनिक स्थान, ममताजी तो अटलजी को पितातुल्य मानती थीं और खुलकर अपने दिल की बातें करती थीं।

नवीन पटनायक भले ही ममता और वाइको जितने मुखर न रहे हों, लेकिन उन्होंने हमेशा वाजपेयी का समर्थन किया। नवीन बाबू कई बार अटलजी से उनके निवास पर मुलाकात करने पहुँचे थे और अपनी पार्टी के अंदरूनी मामलों के बारे में उनसे सलाह भी लेते थे और उन्हें सुलझाने में सहायता भी, जब ए.आई.ए.डी.एम.के. ने गठबंधन से समर्थन वापस ले लिया, तब वाजपेयी की 13 महीने पुरानी एन.डी.ए. सरकार लोकसभा में विश्वास मत हार गई थी।

ऐसे संकट के समय ममता बनर्जी और वाइको वाजपेयी के समर्थन में सबसे आगे थे, तब एन.डी.ए. के राजनीतिक प्रबंधक प्रमोद महाजन ने वाजपेयी को दोबारा नेता चुनने और कुछ छोटे दलों व निर्दलीय सांसदों से अतिरिक्त समर्थन जुटाकर फिर से सरकार बनाने का दावा पेश करने की कोशिश की।
लेकिन वाजपेयी दोबारा दावा पेश करने के इच्छुक नहीं थे। उन्हें पता था कि राष्ट्रपति के.आर. नारायणन एक हारी हुई सरकार के नेता को फिर से सरकार बनाने का दावा पेश करने की अनुमति देने के पक्ष में नहीं होंगे। उन दिनों एक गंभीर संवैधानिक गतिरोध की स्थिति बन गई थी, क्योंकि मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और पश्चिमी बंगाल की आर.एस.पी. और फॉरवर्ड ब्लॉक ने कांग्रेस-नेतृत्व वाली सरकार के सभी रास्ते बंद कर दिए थे।

कांग्रेस नेता सोनिया गांधी ने भी किसी अन्य विकल्प के प्रति अपना रुख पूरी तरह सख्त कर लिया। ऐसे में, ममता बनर्जी ने एक ‘राष्ट्रीय सरकार’ (national government) का प्रस्ताव रखा, जिसमें वाजपेयी प्रधानमंत्री बने रहें। लेकिन वाजपेयी ने इस विचार को अव्यावहारिक बताते हुए स्वीकार नहीं किया था।

अचानक एन.डी.ए. के भीतर ही एक फुसफुसाहट शुरू हो गई कि अगर वाजपेयी को बदलकर किसी और नेता को चुनकर तथा कुछ नई सहयोगी पार्टियों के साथ एन.डी.ए. दोबारा सरकार बनाने का दावा पेश करे तो बात बन सकती है।

इस फुसफुसाहट के साथ एक तर्क दिया जाने लगा, “अगर थर्ड फ्रंट अपना नेता बीच में बदल सकता है (जैसे देवेगौड़ा की जगह गुजराल आए), तो एन.डी.ए. क्यों नहीं?”

लेकिन ममता बनर्जी और वाइको ने इस प्रयास को सिरे से खारिज कर दिया। उन्होंने जोर देते हुए कहा, “वाजपेयी नहीं तो कोई एन.डी.ए. सरकार नहीं!”

नवीन बाबू ने भी इस तरह के किसी सुझाव को स्वीकार नहीं किया था। वाजपेयी की टीम के हम सब लोग केवल अंदाजा ही लगाते रह गए, लेकिन यह पता नहीं लगा पाए कि इस campaign के पीछे असली खिलाड़ी कौन थे।