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…तो क्या फेल हो गए प्रशांत किशोर

परिस्थितियां तो कुछ इसी ओर इशारा कर रही हैं, कैम्पेन मेनेजर के रूप में देखें तो कहा जा सकता है सफल

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sharad asthana

Oct 29, 2016

Prashant Kishore

Prashant Kishore

अमित शर्मा, नई दिल्ली/नोएडा। उत्तर प्रदेश में जब प्रशांत किशोर ने कांग्रेस की सियासी जमीन को फिर से बनाने का काम सम्भाला था, तब कुछ लोगों को यह उम्मीद बंधने लगी थी कि शायद अब ग्रैंड ओल्ड पार्टी यूपी में वापसी करे। उत्तर प्रदेश में चौथे नम्बर की पार्टी बन चुकी कांग्रेस से यह उम्मीद उसके साथ ज्यादती जैसी ही थी। कांग्रेस के इस दावे पर तो किसी को यकीन नहीं था कि वह इस बार सरकार बनाएगी (क्योंकि उसने बड़े जोर-शोर से अपना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार भी घोषित कर दिया था) लेकिन यह उम्मीद जरूर की जा रही थी कि वह कम से कम सौ सीटों की संख्या के आसपास होगी। यह कांग्रेस के उबरने जैसा ही होता क्योंकि यहां पिछले दो चुनाव से दूसरे नम्बर का दल सौ सीट के नीचे ही रहता है।
लोगों को यह उम्मीद कांग्रेस से कम, प्रशांत किशोर के पिछले रिकॉर्ड से ज्यादा थी। लेकिन अभी भी जब कि चुनाव चार महीने से अधिक की दूरी पर है, यह उम्मीद धूमिल पड़ती नज़र आ रही है। तो क्या भारतीय राजनीती का 'सुपर स्ट्रेटेजिस्ट' फेल हो गया। परिस्थितियां तो कुछ इसी ओर इशारा कर रही हैं।

कैम्पेन मेनेजर के रूप में सफल रहे प्रशांत किशोर

प्रशांत किशोर उर्फ़ पीके को अगर एक कैम्पेन मेनेजर के रूप में देखें तो सम्भवतः उनको सफल कहा जा सकता है। उसका कारण यह है कि उन्होंने जब से कांग्रेस से यूपी मिशन का कॉन्ट्रैक्ट किया है, तभी से वे कुछ न कुछ ऐसा करते रहे हैं जिनकी वजह से बैकफुट पर चल रही कांग्रेस चर्चा में आ गई थी। उनकी टीम के सदस्यों का हर विधानसभा क्षेत्र में ब्लाॅॅक स्तर तक टीम बनाने का प्रयास कांग्रेस को मजबूती देने वाला रहा। इससे निचले स्तर तक यह सन्देश पहुंचाने में सफलता मिली कि पार्टी अब अपने पूरे दमखम के साथ वापसी करने को तैयार है। पुराने कांग्रेसियों में नई जान फूंकने के लिए यह कत्तई कम नहीं था। पीके की पहल पर कांग्रेस ने जो यात्राएं आयोजित कीं, वे भी अपना असर छोड़ने में खासी कामयाब रहीं। 27 साल यूपी बेहाल यात्रा हो या खाट पंचायत, इसने कांग्रेस को मीडिया की हैडलाइन बना दिया। राहुल गांधी के रोड शो में उमड़ती भीड़ ने एक बारगी पार्टी के विरोधियों के मन में सिहरन पैदा कर दी। अगर कांग्रेस के आंकड़ों पर भरोसा करें तो 75 लाख से अधिक किसानों से कर्जमाफी का फॉर्म भरवाया गया है। इसे अभी दो करोड़ किसान परिवारों तक ले जाया जाने का प्रस्ताव है। कार्यकर्ताओं का चुनाव क्षेत्रों में जाना और एक-एक व्यक्ति से मिलकर कांग्रेस द्वारा कर्जमाफी का फॉर्म भरवाना, पार्टी के प्रति लोगों की राय जानने की कोशिश करना काफी फायदेमंद रहा। लोगों के बीच एक बार उत्सुकता बनी। पार्टी के लिए यह एक अच्छी पहल रही। हालांकि यह सफलता पूरी तरह से प्रशांत किशोर की नहीं कही जा सकती। इसके पीछे तर्क यह है कि लोगों का मानना है कि गांधी सरनेम के साथ आज भी वह करिश्मा है जिसकी वजह से लोग उन्हें देखने सड़कों पर आ जाते हैं और अच्छी खासी भीड़ इकट्ठी हो जाती है। सोनिया गांधी का वाराणसी में रोड शो हो या राहुल की किसान यात्रा का, लोग उन्हें देखने-सुनने सड़कों पर आएं। राज बब्बर, गुलाम नबी आज़ाद और शीला दीक्षित भी अपने स्तर पर अपनी रैलियों में भीड़ खींचने में कामयाब रहे। ऐसे में पीके के आलोचक इसे उनकी सफलता मानने से इनकार करते हैं।

जो न कर सके प्रशांत किशोर

यूपी चुनाव से सम्बंधित अभी जो भी चुनाव सर्वे हुए हैं, उनमें कांग्रेस की लगभग वही स्थिति दिखाई जा रही है जिसकी उम्मीद बहुत दिनों से की जा रही थी। किसी भी सर्वे ने कांग्रेस को छः फीसद के आसपास वोट और दस से पचीस सीटों से ज्यादा जीत की उम्मीद नहीं दिखाई है। ध्यान रहे कि प्रशांत के पार्टी से जुड़ने से पहले भी कांग्रेस की यही स्थिति थी। 2009 के लोकसभा चुनाव में पार्टी 21 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। उसका मत फीसद भी ठीकठाक था। पिछले विधानसभा चुनाव की भी बात करें तो उसे उतने विधायक और उतने मत मिल गए थे जितने की आज की स्थिति में पाने की उम्मीद जताई जा रही है। ऐसे में यह सवाल तो किया ही जा सकता है कि क्या पीके कांग्रेस के साथ किसी नए वोटर वर्ग को जोड़ने में कामयाब रहे। फिलहाल तो इसका सकारात्मक उत्तर किसी के भी पास नहीं है।

पीके के दम पर नहीं जीते जाते चुनाव

पीके दो सफलताओं की वजह से जाने जाते हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी रैलियों में अभूतपूर्व प्रयोग के लिए और दूसरा बिहार में नीतीश कुमार के चुनावी मिशन को गति देने के लिए। पीके की भूमिका और सम्भावित् परिणाम पर उसके असर के बारे में पूछने पर भारतीय जनता पार्टी के एक राष्ट्रीय नेता ने उलटे सवाल किया, क्या आपको लगता है कि मोदी सिर्फ इसीलिए चुनाव जीते क्योंकि पीके ने उनका चुनाव प्रचार किया था। उनके इस सवाल में ही यह बात छिपी थी कि किसी प्रचार मेनेजर की वजह से चुनाव नहीं जीते जाते। जनता दल यूनाइटेड के एक राष्ट्रीय पदाधिकारी कहते हैं, यूपी चुनाव में पीके की पोल खुल जाएगी।

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