प्रशांत किशोर उर्फ़ पीके को अगर एक कैम्पेन मेनेजर के रूप में देखें तो सम्भवतः उनको सफल कहा जा सकता है। उसका कारण यह है कि उन्होंने जब से कांग्रेस से यूपी मिशन का कॉन्ट्रैक्ट किया है, तभी से वे कुछ न कुछ ऐसा करते रहे हैं जिनकी वजह से बैकफुट पर चल रही कांग्रेस चर्चा में आ गई थी। उनकी टीम के सदस्यों का हर विधानसभा क्षेत्र में ब्लाॅॅक स्तर तक टीम बनाने का प्रयास कांग्रेस को मजबूती देने वाला रहा। इससे निचले स्तर तक यह सन्देश पहुंचाने में सफलता मिली कि पार्टी अब अपने पूरे दमखम के साथ वापसी करने को तैयार है। पुराने कांग्रेसियों में नई जान फूंकने के लिए यह कत्तई कम नहीं था। पीके की पहल पर कांग्रेस ने जो यात्राएं आयोजित कीं, वे भी अपना असर छोड़ने में खासी कामयाब रहीं। 27 साल यूपी बेहाल यात्रा हो या खाट पंचायत, इसने कांग्रेस को मीडिया की हैडलाइन बना दिया। राहुल गांधी के रोड शो में उमड़ती भीड़ ने एक बारगी पार्टी के विरोधियों के मन में सिहरन पैदा कर दी। अगर कांग्रेस के आंकड़ों पर भरोसा करें तो 75 लाख से अधिक किसानों से कर्जमाफी का फॉर्म भरवाया गया है। इसे अभी दो करोड़ किसान परिवारों तक ले जाया जाने का प्रस्ताव है। कार्यकर्ताओं का चुनाव क्षेत्रों में जाना और एक-एक व्यक्ति से मिलकर कांग्रेस द्वारा कर्जमाफी का फॉर्म भरवाना, पार्टी के प्रति लोगों की राय जानने की कोशिश करना काफी फायदेमंद रहा। लोगों के बीच एक बार उत्सुकता बनी। पार्टी के लिए यह एक अच्छी पहल रही। हालांकि यह सफलता पूरी तरह से प्रशांत किशोर की नहीं कही जा सकती। इसके पीछे तर्क यह है कि लोगों का मानना है कि गांधी सरनेम के साथ आज भी वह करिश्मा है जिसकी वजह से लोग उन्हें देखने सड़कों पर आ जाते हैं और अच्छी खासी भीड़ इकट्ठी हो जाती है। सोनिया गांधी का वाराणसी में रोड शो हो या राहुल की किसान यात्रा का, लोग उन्हें देखने-सुनने सड़कों पर आएं। राज बब्बर, गुलाम नबी आज़ाद और शीला दीक्षित भी अपने स्तर पर अपनी रैलियों में भीड़ खींचने में कामयाब रहे। ऐसे में पीके के आलोचक इसे उनकी सफलता मानने से इनकार करते हैं।