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- भारत डोगरा, वरिष्ठ पत्रकार
केरल में भीषण बाढ़ और अनेक बड़े भूस्खलनों ने जितनी तबाही इस वर्ष की है, उतनी पहले कभी नहीं की। ऐसे में यह सवाल भी उठना लाजिमी है कि आखिर ऐसे क्या कारण रहे जिनकी वजह से प्रकृति के खूबसूरत अंचल में बसे व विकास के सूचकांकों में आगे रहने वाले इस राज्य को भारी तबाही झेलनी पड़ रही है।
देखा जाए तो समूची दुनिया ही जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। ऐसे दौर में अतिवृष्टि और अनावृष्टि दोनों के ही आसार ज्यादा होते हैं। केरल में भी इन्हीं कारणों से रिकार्डतोड़ बरसात हुई। हम जरूरी सावधानियों को नहीं अपनाते तो बाढ़ से अधिक तबाही की आशंका बढ़ ही जाती है।
सबसे पहले तो वनों की रक्षा करने की आवश्यकता है। भारत विज्ञान संस्थान के एक अध्ययन के अनुसार अकेले केरल में ही पिछले लगभग 45 वर्षों में नौ लाख हैक्टेयर वनों का सफाया हो गया। पर्यावरण नियमों की अवहेलना करते हुए जो खनन कार्य अनेक स्थानों हुए वे भी बाढ़ की विभीषिका को बढ़ाने वाले रहे। केरल में अवैध खनन के मामले पिछले सालों में बढ़े हैं। वहां गंभीर पर्यावरण समस्याओं की ओर पहले भी पर्यावरणविद ध्यान दिला चुके हैं। विशेषकर पश्चिम घाट क्षेत्र के पर्यावरण की रक्षा के लिए तैयार की गई गाडगिल रिपोर्ट में इस तरह की कई समस्याओं की ओर ध्यान दिलाया गया है।
यदि बाढ़ का पानी विभिन्न परम्परागत जल-स्रोतों, दलदली क्षेत्रों आदि में समा जाए तो इससे बाढ़ से होने वाली तबाही कम होती है। केरल में नदियों के किनारे की बहुत सी भूमि पर अतिक्रमण हो गए और इसी वजह से पानी आबादी क्षेत्र तक आ पहुंचा। बांध प्रबंधन में अधिक महत्त्व प्राय: पनबिजली उत्पादन को दिया जाता है। इसीलिए आम तौर पर मानसून के आरंभिक दौर में अधिक वर्षा होने पर बांधों को भर दिया जाता है जबकि बचे हुए मानसूनी दिनों के लिए इन्हें पर्याप्त खाली रखना चाहिए। ऐसे में मानसून के आगामी चरण में अधिक वर्षा हो जाए तो जल्दबाजी में अत्यधिक पानी बांधों से छोडऩा पड़ता है व इस स्थिति की हड़बड़ाहट में उतनी ठीक तरह से पानी छोडऩे की पर्याप्त चेतावनी भी नहीं दी जा सकती है जितनी की जरूरत होती है।
तटीय व पर्वतीय क्षेत्रों की अधिकता के कारण केरल को जलवायु बदलाव के दौर में भूस्खलन और बाढ़ के खतरों को कम करने के लिए विशेष रूप से सावधान रहना चाहिए।

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