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नागरिक सुरक्षा: प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा कोई विकल्प नहीं, अनिवार्यता हो

— गजेंद्र सिंह स्वतंत्र (लेखक एवं स्तंभकार )

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जयपुर

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VIKAS MATHUR

May 05, 2025

भारत में, जहां संवैधानिक मूल्य शासन की आधारशिला होते हैं, राज्य का कर्तव्य है कि वह प्रत्येक नागरिक के जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति की रक्षा करे। लेकिन पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में हाल की घटना एक दुखद सच्चाई को उजागर करती है। अप्रेल में नए लागू किए गए वक्फ संशोधन अधिनियम के खिलाफ विरोध कर रही भीड़ ने एक महिला की मिठाई की दुकान को लूट लिया और नष्ट कर दिया। शायद भीड़ को महिला के खिलाफ कोई व्यक्तिगत शिकायत नहीं थी, फिर भी उन्होंने उसकी रोजी-रोटी छीन ली। इस दौरान सरकार और पुलिस की चुप्पी यह बताती है कि आम लोग भीड़ हिंसा के सामने कितने असुरक्षित हैं।

संगठित भीड़ हिंसा भारत के लिए नई नहीं है, लेकिन इसकी आवृत्ति, पैमाना और निर्लज्जता हाल के वर्षों में अधिक चिंताजनक हो गई है। 2020 में, देश ने सांप्रदायिक अशांति की बाढ़ देखी। नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों के दौरान भड़के दिल्ली दंगों में सैकड़ों लोग मारे गए, सैकड़ों घायल हुए और बड़े पैमाने पर संपत्ति का विनाश हुआ। लंबे समय तक चला शाहीन बाग धरना एक फ्लैशपॉइंट बन गया, जिससे महीनों तक सामान्य जीवन बाधित हुआ। उसी समय के आसपास, बेंगलूरु ने एक भयावह घटना का अनुभव किया, जहां भीड़ ने पुलिस स्टेशनों पर हमला किया, वाहनों को आग लगा दी और लाखों की संपत्ति को नष्ट कर दिया, जिससे कई परिवार बेघर हो गए।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, 2019 में सांप्रदायिक दंगों के 2,322 मामले दर्ज किए गए, जिनमें 1,250 मौतें और 2,000 से अधिक लोग घायल हुए। उसी वर्ष, 10,000 से अधिक हिंसक सार्वजनिक अशांति की घटनाएं भी दर्ज की गईं, जिनमें आगजनी, हमले और व्यवसायों का विनाश जैसे कृत्य शामिल थे। यह डेटा न केवल प्रमुख शहरी केंद्रों में, बल्कि छोटे शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों में भी हिंसा के चिंताजनक प्रसार को उजागर करता है। पश्चिम बंगाल में भीड़ से संबंधित हिंसा में निरंतर वृद्धि देखी गई है और कई घटनाएं धार्मिक और राजनीतिक तनावों से प्रेरित रही हैं। राज्य चुनावों के बाद, कूच बिहार, नंदीग्राम और बीरभूम में राजनीतिक रूप से प्रेरित हिंसा के कारण 47 लोगों की मौत हुई और हजारों लोग विस्थापित हो गए। भारतीय संविधान मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है, लेकिन इन्हें लागू करने के लिए एक कार्यशील तंत्र के बिना इनका महत्त्व कम हो जाता है।

कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव के 2020 के एक अध्ययन में पाया गया कि 60 फीसदी से अधिक ग्रामीण नागरिकों का मानना था कि कानून प्रवर्तन या तो अप्रभावी था या अगम्य था। शहरी क्षेत्रों में भी, संकट के दौरान पुलिस सुरक्षा में जनता का विश्वास नाजुक बना हुआ है। पश्चिम बंगाल का डेटा तात्कालिकता को उजागर करता है। 2019 से 2021 तक, राज्य में सांप्रदायिक झड़पों में 35त्न की वृद्धि देखी गई। इस बढ़ते संकट से निपटने के लिए, राज्य को न्याय, जवाबदेही और रोकथाम पर आधारित एक बहु-आयामी रणनीति अपनानी चाहिए। भीड़ हिंसा और सांप्रदायिक अपराध के लिए विशेष रूप से फास्ट-ट्रैक अदालतें स्थापित की जानी चाहिए, जिनमें फैसलों के लिए सख्त समय सीमा हो। कोई भी व्यक्ति या समूह कानून से ऊपर नहीं होना चाहिए।

भीड़ को भड़काने या उसका नेतृत्व करने वालों को गंभीर कानूनी और वित्तीय परिणाम भुगतने चाहिए। ऐसे कृत्यों का समर्थन करने वाले राजनेताओं या संगठनों को दंडित किया जाना चाहिए। बंगाल की घटनाएं कोई अपवाद नहीं है, यह उस गहरी और चिंताजनक विफलता का दर्पण है, जिसमें राज्य अपने सबसे मूल वादे, सम्मान और सुरक्षा के साथ जीवन के अधिकार, की रक्षा करने में विफल रहा है। हर नागरिक, चाहे उसकी सामाजिक, धार्मिक या राजनीतिक पहचान कुछ भी हो, इस संवैधानिक आश्वासन का हकदार है। जब हमारे समाज की बुनियाद नफरत, ध्रुवीकरण और अराजकता से हिलने लगती है, तो सिर्फ पीडि़त ही नहीं, पूरा लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता है।

अब समय आ गया है कि राज्य, समाज और हम सभी नागरिक मिलकर यह सुनिश्चित करें कि कानून के राज की भावना पुन: स्थापित हो, जहां संवाद को प्राथमिकता मिले और हिंसा को दंड। अगर भारत को अपने लोकतांत्रिक आदर्शों पर सचमुच खरा उतरना है, तो प्रत्येक नागरिक की सुरक्षा कोई विकल्प नहीं, बल्कि एक अनिवार्यता होनी चाहिए। आज आवश्यकता है ठोस राजनीतिक इच्छाशक्ति, दूरदर्शी कानूनी सुधार, और निडर प्रशासनिक हस्तक्षेप की। क्योंकि जब राज्य अपने नागरिकों को सुरक्षा देने में चूक जाता है, तो केवल एक महिला की दुकान ही नहीं जलती, जलता है उस व्यवस्था पर विश्वास, जो समानता, न्याय और गरिमा का वादा करता है।