24 दिसंबर 2025,

बुधवार

Patrika LogoSwitch to English
home_icon

मेरी खबर

icon

प्लस

video_icon

शॉर्ट्स

epaper_icon

ई-पेपर

उपयोगी हैं सहकारी समूह, लेकिन राजनीति से खतरा

अमूल हो या नंदिनी, यहां मुद्दा भावनात्मक जुड़ाव का है। न सिर्फ वफादार उपभोक्ताओं के लिए, बल्कि किसानों के लिए भी। कर्नाटक में अमूल की सफलता का अर्थ माना गया स्थानीय ब्रांड नंदिनी का खत्म होना। इसलिए यह एक भावनात्मक चुनावी मुद्दा बन गया।

3 min read
Google source verification

image

Patrika Desk

Jun 01, 2023

उपयोगी हैं सहकारी समूह, लेकिन राजनीति से खतरा

उपयोगी हैं सहकारी समूह, लेकिन राजनीति से खतरा

अजीत रानाडे
लेखक वरिष्ठ
अर्थशास्त्री हैं
(द बिलियन प्रेस)

कर्नाटक चुनाव के दौरान एक मुद्दा चर्चा में रहा। यह था गुजरात के दुग्ध ब्रांड अमूल बनाम स्थानीय ब्रांड नंदिनी का। यह चुनावी मुद्दा कैसे बन गया? वह इसलिए, क्योंकि अमूल को सत्तारूढ़ पार्टी से संबद्ध ब्रांड माना गया, जबकि नंदिनी को विपक्ष का। दरअसल, यह मुकाबला स्थानीय दुग्ध ब्रांड बनाम गुजराती मूल के राष्ट्रीय ब्रांड का बन गया। आम तौर पर उपभोक्ता कम्पनियों के बीच प्रतिद्वंद्विता का स्वागत करते हैं, क्योंकि इससे उन्हें अधिक विकल्प मिलते हैं। लेकिन, अमूल और नंदिनी कम्पनियां नहीं हैं। ये दोनों ही दुग्ध उत्पादकों की सहकारी समितियां हैं। इस बीच तमिलनाडु सरकार भी राज्य में अमूल की सक्रियता को लेकर चिंतित है। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री ने केंद्र को पत्र लिख कर आग्रह किया है कि राज्य की दुग्ध सहकारी समिति आविन के क्षेत्र से दुग्ध एकत्रित करने से अमूल को रोका जाए।
अमूल हो या नंदिनी, यहां मुद्दा भावनात्मक जुड़ाव का है। न सिर्फ वफादार उपभोक्ताओं के लिए, बल्कि किसानों के लिए भी। कर्नाटक में अमूल की सफलता का अर्थ माना गया स्थानीय ब्रांड नंदिनी का खत्म होना। इसलिए यह एक भावनात्मक चुनावी मुद्दा बन गया। राष्ट्रीय स्तर पर सहकारिता अधिनियम में संशोधन की बदौलत अमूल अपने राज्य की सीमा से निकल कर कर्नाटक राज्य के भीतर तक पहुंच गया, लेकिन कर्नाटक का नंदिनी ब्रांड गुजरात नहीं पहुंच सका। सहकारी समितियों को प्रोत्साहन का मौलिक विचार था छोटे किसानों के हितों की रक्षा करना; फिर चाहे वे दुग्ध उत्पादक हों या तिलहन, गन्ना उत्पादक हों। अपने उत्पादों को 'पूलÓ करके किसान उपभोक्ताओं के साथ अच्छा मोल भाव कर लेते हैं। ये समितियां उत्पादकों का स्वयंसेवी संगठन हंै।
भारतीय संविधान के अनुसार, सहकारिता का विषय राज्य की सूची में आता है। आमतौर पर ये समितियां राज्य की सीमा के भीतर ही संचालित होती हैं। 1984 में बहुराज्यीय सहकारी समिति अधिनियम पारित हुआ। 2002 में इसमें पहला संशोधन हुआ। वर्ष 2022 में भी इसमें संशोधन किया गया। इसके तहत सहकारी समितियों के लिए राष्ट्र में कहीं भी उपस्थिति दर्ज करवाना आसान हो गया। वैसे, इन समितियों का विकास और विस्तार स्वाभाविक रूप से ही सीमित है, क्योंकि ये असीमित पूंजी नहीं उगाह सकतीं। कम्पनी में एक शेयर होल्डर बड़ी पूंजी ला सकता है, अधिक प्रभावशाली या बड़ा मालिक बन सकता है, क्योंकि शेयरहोल्डिंग में मताधिकार समानुपात में होते हैं। सहकारिता में ऐसा नहीं होता। ज्यादा पूंजी का योगदान देने के बावजूद कोई एक सदस्य एक से अधिक वोट नहीं पा सकता। इससे पूंजी लाने और विकास के लिए प्रोत्साहन का माहौल नहीं बनता। इस मायने में सहकारिता एक तरह से पूंजीवाद विरोधी है। गुजरात का मामला अलग है। इसके लिए संस्थापक वर्गीज कुरियन के दूरदर्शी नेतृत्व का आभार माना जाना चाहिए। चूंकि दूध दैनिक उपभोग का उत्पाद है, कुरियन का कहना था कि इसका लाभ सीधे किसान को मिलना चाहिए न कि दूध विक्रेता कम्पनी या मध्यस्थ को। गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ(जीसीएमएमएफ) आज एक बड़ी सफल सहकारिता है। अमूल को 'टेस्ट ऑफ इंडिया' कहा जाता है। अमूल की सफलता के कई घटक हैं। बिजनेस स्कूलों में अमूल केस स्टडी पढ़ाई जाती है। मूलत: यह लाखों किसानों से वाजिब दामों पर खरीद कर दूध एकत्र करता है। इससे आइसक्रीम, मक्खन, चीज जैसे खाद्य पदार्थ बनाए जाते हैं। इन्हें 'उद्योगÓ शैली में प्रबंधित किया जाता है। कई राज्यों में स्थित अमूल प्लांट्स में बनने वाले इन उत्पादों की 'शेल्फ लाइफÓ दूध से कहीं अधिक है। सुपर ब्रांड के विकास का फायदा इसके सदस्यों को स्थाई लाभ व आय के रूप में मिलता है। यहां किसी के कम्पनी हथियाने का खतरा भी नहीं है, सिवाय राजनेताओं के, जो सफल सहकारी समूहों के खत्म होने का कारण बनते हैं। गन्ने का किस्सा दिलचस्प है। भारत विश्व का सबसे बड़ा चीनी उत्पादक है। इसका एक बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और तमिलनाडु से आता है। हालांकि केवल महाराष्ट्र में ही चीनी कारखाने सहकारी समूहों द्वारा चलाए जाते हैं। भारत में चीनी का दो तिहाई से अधिक व्यवसाय पूंजीपतियों के हाथ में है। निस्संदेह यह क्षेत्र अमूल व अन्य दुग्ध संघों जितना सफल और लाभकारी नहीं है। दुग्ध सहकारी संघों के सदस्यों की आय तेजी से बढ़ती है और यह गन्ना या तिलहन किसानों के मुकाबले ज्यादा स्थाई है। गन्ना व्यवसाय सब्सिडी के भार और किसानों के बकाया भुगतान के चलते डूब रहा है।
अमूल को विकास के लिए अधिक क्षेत्रों की जरूरत है। जैसे दूसरे राज्यों में संचालन, जिसमें स्थानीय डेयरी सहकारी संघों का बाजार में अंश लेने की संभावना है। विवाद का यही कारण है। छोटे उत्पादकों की आय और आजीविका को संरक्षित करने के लिए सहकारी संघों की जरूरत है, फिर वे चाहे दुग्ध उत्पादक हों, या फिर मूंगफली या तिलहन या गन्ना उत्पादक। इसीलिए सरकार किसान उत्पादक कम्पनी मॉडल को प्रोत्साहन दे रही है, जो सहकारी व पूंजीवादी के बीच का मिश्रित माध्यम है।