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अजा-जजा आरक्षण में उपवर्गीकरण का मतलब

आरक्षण का उपवर्गीकरण ही एकमात्र रास्ता है जो समाज में समता समानता एवं मौलिक अधिकारों के मूलभूत सिद्धांतों की रक्षा करके इन वर्गों के लोगों को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार दे सकता है। मुश्किल यह है कि राजनीति के चश्मे में सत्य को देख पाना बड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि वोट रूपी कील हमेशा उस चश्मे को तोडऩे के लिए लगी रहती है। इसलिए नेता ऐसे मामलों से बचते हैं और यथा स्थिति बनाए रखने में ही भलाई समझते हैं। राजनीतिक दलों को सच्चाई समझनी होगी।

जयपुरAug 14, 2024 / 09:44 pm

Gyan Chand Patni

आर.एन. त्रिपाठी
प्रोफेसर, समाजशास्त्र, बीएचयू और सदस्य यूपीपीएससी
हाल ही उच्चतम न्यायालय ने अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों के आरक्षण में उपवर्गीकरण के पक्ष में फैसला दिया है। न्यायालय ने कहा है कि जिनको अभी तक पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिला उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व दिया जाए। राजनीतिक दलों के रवैए को देखते हुए इस फैसले का लागू होना आसान नहीं है। हमारा देश जाति प्रधान देश रहा है। राजनीतिक दलों के वर्तमान रवैए से इसको और बल मिलेगा। बहुत सारे लोग यह तर्क दे रहे हैं कि उपवर्गीकरण ठीक नहीं है क्योंकि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के जो समूह बनाए गए हैं, उनमें कोई भेद नहीं है। निश्चित रूप से अजा-जजा से जुड़े लोगों को वह सम्मान नहीं मिला जो सम्मान मिलना चाहिए था, परंतु आज समाज की एक सच्चाई यह है कि सामाजिक सम्मान का आधार आर्थिक है। इन वर्गों की बहुत सारी उपजातियां आरक्षण का लाभ लेकर अपने को आर्थिक तौर पर काफी मजबूत कर चुकी हैं। अब तक जो सामाजिक शोध आए हैं, उनसे स्पष्ट है कि आरक्षित वर्ग के वंचित लोगों के साथ उनके ही वर्ग की अन्य जातियों के संपन्न लोग भेदभावपूर्ण व्यवहार करते हैं। निश्चित रूप से आरक्षित वर्ग का संपन्न वर्ग वंचितों के साथ शासक या सवर्णों की भांति व्यवहार करता है।
आरक्षण के अंदर आरक्षण की व्यवस्था थोड़ी अटपटी तो अवश्य लगती है लेकिन तार्किक और न्याय की दृष्टि से यह व्यवस्था उपयुक्त लगती है क्योंकि आरक्षण का अधिक लाभ इन वर्गों की अपेक्षाकृत समर्थ जातियों ने उठाया और उसमें से कुछ इतनी विकसित हो चुकी हैं कि आज उनको आरक्षण की जरूरत नहीं है लेकिन वोट बैंक के आधार पर आज भी इस सत्य को कहने का साहस किसी के पास नहीं है। परिणाम यह है कि वंचित निर्धन लोगों के साथ अन्याय होता रहा और शायद इस निर्णय के आ जाने के बाद भी यथावत होता रहे। जीतन राम मांझी जैसे नेता खुश हंै, परन्तु इनकी संख्या नगण्य है। इसलिए हो सकता है इनकी मांग ‘नक्कार खाने में तूती की आवाज’ बनकर रह जाए। सवाल यह है कि सामाजिक न्याय का जो नारा बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने दिया था, क्या उसमें अति निर्धन और महादलित को पर्याप्त अवसर न देने की बात कही गई थी? ऐसा कदापि नहीं है। राजनीतिक दल केवल वोट बैंक पर अपना ध्यान रखे हुए हैं और इस उपवर्गीकरण का विरोध कर रहे हैं।
अगर हम देश में न्यायिक नीतियों के आधार पर न चलकर वोट की राजनीति में बहते रहे तो इस देश का भविष्य भी काफी विषाक्त हो सकता है। अगर आप सामाजिक सर्वेक्षणों की बात करें तो स्पष्ट होगा कि अनुसूचित जातियों में भी बहुत सी ऐसी जातियां हैं जिनको आरक्षण का लाभ पूर्णतया मिला और देश के प्रतिष्ठित सेवाओं, पूंजी तथा राजनीति के बल पर इस वर्ग के लोग उच्च स्थानों पर हैं, वहीं वाल्मिकी, मांझी, बैगा जैसी कुछ ऐसी भी जातियां हैं जो आज भी अपने पुराने पेशों से जुड़ी हुई हैं और आज भी उन्हें वह सम्मान नहीं मिल सका जिसकी वे हकदार थीं। आरक्षण का फायदा समर्थ जातियां को मिला और उन्होंने अपने स्तर को उठा लिया। आरक्षण का प्रतिशत कम नहीं हुआ परंतु उसका लाभ कुछ जातियों के कुछ लोगों को ही मिल पाया। उच्चतम न्यायालय ने इस विसंगति को समझा। इसीलिए कहा कि क्या अनुसूचित जाति और जनजाति के आइएएस, आइपीएस और पूंजीपति के घर के बच्चे गांव के भूमिहीन, निर्धन और वाल्मीकि समाज में रहने वाले बच्चों के बराबर हंै? निश्चित रूप से आरक्षित वर्ग में जो अपेक्षाकृत सक्षम और संपन्न हंै, उन्होंने आरक्षण का पूरा लाभ ले लिया और जो पिछड़े रह गए उन्हें आरक्षण का लाभ ही नहीं मिला। सामाजिक समरसता के नजरिए से विचार किया जाए तो इस विसंगति का दूर होना बहुत आवश्यक है।
आरक्षण का उपवर्गीकरण ही एकमात्र रास्ता है जो समाज में समता समानता एवं मौलिक अधिकारों के मूलभूत सिद्धांतों की रक्षा करके इन वर्गों के लोगों को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार दे सकता है। मुश्किल यह है कि राजनीति के चश्मे में सत्य को देख पाना बड़ा मुश्किल होता है, क्योंकि वोट रूपी कील हमेशा उस चश्मे को तोडऩे के लिए लगी रहती है। इसलिए नेता ऐसे मामलों से बचते हैं और यथा स्थिति बनाए रखने में ही भलाई समझते हैं। राजनीतिक दलों को सच्चाई समझनी होगी।

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